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________________ ( ३२ ) आश्रय देने बाली मानसिक व कांयिक प्रवृत्तियों के विद्यमान रहने तक जीव स्तर विशेष से ऊपर उठ नहीं सकता एवं तद् अपेक्षा शुद्ध परिस्थिति से उत्पन्न होने वाले ज्ञान की उपलब्धि सार्थक नहीं हो सकती - यह उन स्थिति स्थानों को देखकर कोई भी व्यक्ति अनुमान कर सकता है। दूसरों को कितना ही धोखे मे कोई क्यों न रक्खे, वह स्वयं जान सकता है कि उसका आवास कहां है । महावीर के बाद ज्ञान पथ के कई पथिकों ने, भिन्न भिन्न स्थिति स्थानों मे पहुंच कर प्रगति क्रम को, पूर्ण उत्साह के साथ - उर्ध्वगामी रखते हुये, अन्तर अनुभूतियों से ओत प्रोत भाव साहित्य का निर्माणकर, सत्य की उपलब्धि को सचमुच श्रनेकाश मे जिज्ञासु के लिये सरल बनाने मे सफलता प्राप्त की। किंतु यह जैन उपेक्षा के कारण वह साहित्य अपेक्षाकृत प्रविदित है, संस्कृति के प्रेमियों के लिये बड़े लज्जा की बात है । और इस से भी अधिक निदनीय रहा है उन स्वाथियों का क्षुद्र प्रयास, जिन्होंने अपने शिथिलाचार की पुष्टि के लिये आवश्यक एवं प्रतिपादित सत्य नियमों में अपेक्षाकृत प्रयुक्त प्रवृत्तियों को सम्मिलित कर ही तो दिया । मन माने अर्थ लगाकर व समय के अधो प्रवाह की कल्पना कर उन्होंने सत्य को आच्छादित करने में किस हद तक सफलता पाई, यह आज की अवांछनीय परिस्थिति से स्पष्टतया जाना जा सकता है। जिन अन्तर शुद्धियों के सहारे उन्नति क्रम को बुद्धि गम्य बनाने के लिये महावीर ने स्थिति स्थानों की व्यवस्था की थी, उस में केवल P
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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