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________________ ॐ हम भाव सामञ्जस्य लाने का अनेक बार निष्फल तो अल्पबार सफल प्रयत्न किया करते है, किंतु सचमुच कभी क्षण मात्र के लिये भी आदान प्रदान नहीं कर पाते । उदाहरण स्वरूप इंद्रिय सम्बन्धी भोग उपभोग को लें - एक ही आम का स्वाद दो व्यक्ति एक ही पाने पर भी एक स्वाद मय एक स्थान व वातावरण में क्यों न लेते हों, एक समान स्वाद नहीं पातेः विचार व भाव वैसा दृश्य से यह स्वाद यों ही एक समान नहीं होता फिर भी इन सब के सादृश्य को स्वीकार करके भी देखा जाय तो भी यह स्पष्ट है कि कोई किसी का भाव ले दे नहीं सकता- चेतन का चेतन से यह पार्थक्य कभी विलुप्त नहीं होता । प्रत्येक चेतन अपने भावों के अनुरूप ही सुख या दुख का अनुभव करता है, इसमें कहीं कभी कोई बाधा नहीं आती । संयोगवश वह अपने भावों में स्वयं हेर फेर करने की क्षमता अवश्य रखता है, पर अन्य कोई उसके भावों में उसकी इच्छा के विरुद्ध परिवर्तन नहीं ला सकता। किसी भी अन्य चेतन की पहुच शारीरिक कार्यादि से लेकर मानसिक तर्क बितर्क को प्रभावित करने से अधिक दूर नहीं पहुंच पाती । यह हम मानते हैं कि जड़ पारतन्त्र्य के कारण अमुक्त चेतन पारिपार्श्विक परिस्थितियों के प्रभावानुसार ही मूक भाव से सोचता या समझता है, पर उसका सोचना या समझना सव कुछ अपना है, नहीं। तभी जिस मुहूर्त से कार्य, कारंग व उहापोह करने की प्रेरणा जागृत होती है, उसके क्रमशः प्रसारित दूसरे का दिया हुआ परिणामों के विषय में
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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