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________________ ( २६ ) पूर्ण अभिव्यक्ति न पाकर, मनन ध्यान अथवा सूक्ष्म विचार विमर्श के अंतरङ्ग पथ से ही सुगमतया अतिवाहित होता है, यह हमारा निश्चित मत है। महावीर के अनुसार चेतन भावाणुओं का पुतला है। ये भावाणु (प्रदेश) कैसे भी संयोग पाकर किसी भी कारण से कभी पृथक नहीं होते, न हो सकते हैं-यह अटल ध्रुव नियम है । जब जड़ाणु से मिलने वाले आघात प्रत्याघात उसके इस अनेकत्त्व भरे एकत्त्व को झकझोरने में भी समर्थ न होते तो सम्पूर्ण स्वातन्त्र्य की उपलब्धि होने पर उसके सघन नियंत्रित ज्ञान प्रवाह को आंदोलित करने की क्षमता रखने का सामर्थ्य अन्य किस में हो सकता है ? ___ व्यवहार के जीवन में इस सत्य को हम निरंतर अस्खलित रूप में प्रवर्तमान होता देखते है, पर कुछ इने गिने महानुभाव ही इसके महत्त्व को हृदयङ्गम कर पाते है । हम मानव को ही उदाहरण स्वरूप लेते हैं (क्योंकि हम स्वयं मानव हैं और मानवीय भानवाओं के उतार चढ़ाव या विभेद स्वयं अनुभव कर सकते हैं)। शैशवकाल से लेकर जराकीर्ण होजाने तक वही एक चेतन प्रासांगिक प्रायोगिक अथवा अन्य प्रकार से आई हुई असंख्य भावनाओं को धारण किये हुये मानों तद्शरीर में अस्खलित भाव से जीवित है। अन्य चेतनों (मनुष्यादि) के निकटतम सम्पर्क में आनेपर भी हमारे अनुभव से यह सत्य कभी क्षण मात्र के लिये भी तिरोहित नहीं होता कि “ हम किसी दूसरे के भाव क ले सकते हैं न दूसरे को अपना भाव दे सकते हैं " भाषा, इंगित, चेष्टा आदि द्वारा
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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