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________________ ७८ जैन दर्शन भी किसी आधारके विना नहीं रह सकते और जो उन गुणोंका आधार है वही आत्मा है। ७ जिस प्रकार कोई घट उसके मूल उपादान कारण-मट्टोके विना हो नहीं सकता उसी प्रकार ज्ञान और सुख वगैरह भी. उसके मूल कारण विना नहीं हो सकते और जो इनका मूल कारण है वही आत्मा है । यदि कदाचित् ज्ञान, और सुखका सूत्न कारण शरीरको हो माननेकी बात की जाय तो यह हो ही नहीं सकता, क्योंकि इस वातका हम पहले ही खंडन कर चुके हैं। ८ जो शब्द व्युत्पत्तिवाला और एकला (एकला याने दो शब्दोंसे एक वना हुआ न हो अर्थात् समासवाला न हो ) होता है उस प्रकारके शब्दका निषेध अपनसे ( निषेधसे) विरुद्ध अर्थको सावित करता है। अर्थात् जैसे अघट कहनेसे घटकी भी सिद्धि हो जाती है वैसे ही अजीव कहनेसे जीवकी भी सिद्धि हो सकती है, क्योंकि जीव व्युत्पत्तिवाला है एवं एकला भी है। अखरविषाण शब्दमें मिला हुआ खरविषाण शब्द व्युपत्तिवाला होनेपर भी . एकला नहीं है और अडित्य शब्दमें, मिला हुभा 'डित्थ शब्द एकला होनेपर भी व्युत्पत्तिवाला नहीं अतः यह माठवाँ अनुमान इस प्रकारके व्युत्पत्ति रहित और समाससे बने हुए शब्दोके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखता। इस तरह यह अनुमान भी जीवकी सिद्धि.. में सहायता करता है। ___९ उपरोक्त कथन किये हुये आठवें अनुमानके द्वारा अपने शरीरमै जीवकी विद्यमानताको निश्चित करके जैसे हमारे शरीरमें जीव है वैसे ही दूसरेके शरीरमे भी जीव होना चाहिये, क्यों कि शरीर मात्र एकसे हैं, इस तरह के सामान्य अनुमान द्वारा भी जीवित शरीरमात्र जीवकी विद्यमानता सिद्ध होती है। जीवका . यह एक खास लक्षण है कि वह इष्ट वस्तुओकी ओर आकर्षित होता है और अनिष्ट वस्तुओंसे स्पर्शतक नहीं करता । यह लक्षण जीव शरीरमात्रमें प्रत्यक्ष तौरसे मालूम होता है अतः इस तरहके समस्त शरीरोंमें जीवकी सिद्धि होने में जरा भी विलम्ब नहीं लग सकता।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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