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________________ जीववाद है। [जिस वस्तुके अस्तित्वका प्रारम्भ समय मालूम नहीं होता और जिसका अमुक ही आकार मालूम नहीं होता ऐसी वस्तुका कोई भी कर्ता नहीं होता, जैसे कि वादलोंका विकार-जिसका कोई भी कर्ता नहीं। हमारा शरीर तो ऐसा नहीं है इस लिये इसका कर्ता तो अवश्य होना चाहिये।] ४ जैसे कि चाक और उसे फिरानेका दंडा इत्यादि साधनोंका कोई एक मालिक होता है, वैसे ही इंद्रियों, मन, और शरीरका भी कोई एक मालिक होना चाहिये और जो इनका मालिक है वही आत्मा है। ५जैसे तयार हुआ पकान खानेके योग्य होनेसे उसका कोई भोका होता है वैसे ही यह शरीर भी भोगनेके योग्य होनेसे इसका भी कोई भोक्ता अवश्य होना चाहिये और जो इसका भोता है वही आत्मा है। __ यदि यहाँपर यह कहा जाय कि उपरोक्त पांचों ही अनुमान विरुद्ध हैं। क्योंकि ये अनुमान रथके हांकनेवाले और पकानको खानेवालेके समान आत्माको भी आकारवान याने रूपी सिद्ध करते हैं और आप तो आत्माको श्राकारवान नहीं मानते 'तो फिर इन अनुमानोंके द्वारा प्रापको इष्ट हो ऐसा श्रात्मा किस तरह सिद्ध हो सकता है । इस प्रश्न उत्तरमें विदित किया जाता है कि हम भी शरीरको चलानेवाले और भोगनेवाले आत्माको आकारवान याने रूपी मानते हैं । इस स्थितिका आत्मा संसारमे परिभ्रमण करता हुत्रा कर्मके अनन्तानन्त' अणुओंसे वेष्टित है, इस लिये वह इस अपेक्षासे आकारवान और मूर्तिमान भी होता है । अतः पूर्वोक्त बतलाये हुये अनुमानोमेसे एक भी अनुमान विरुद्ध नहीं जाता किन्तु वे सब ही प्रामाणिक और युक्ति युक्त हैं। अर्थात् इन अनुमानों के द्वारा कदाचित् संसारमें परिभ्रमण करनेवाला आत्मा आकारवान या रूपी साबित हो तथापि इसमें हम किसी प्रकारका बाध नहीं मानते । । । ६ जिस प्रकार रूपादि गुण किसी आधारके विना रह नहीं सकते उसी प्रकार रूपशान रसज्ञान, और शब्दज्ञान, वगैरह गुण
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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