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________________ ७२ जैन दर्शन ATTARATTIMERE ऐसा नियम होता तो मृत्यु शय्यापर पड़ा हुआ मनुष्य जब अधिक श्वासोश्वास लेता है उस वक्त उसमें चैतन्यकी अधिकता मालम होनी चाहिये और समाधीमें रहा हुआ कोई योगी जो श्वासोच्छ्वालका विलकुल निरोध करता है उसमें तो सर्वथा ही चैतन्य न रहना चाहिये । परन्तु इस बातमें बिलकुल विपरीतता देख पड़ती है। अधिक श्वासोच्छ्वास लेनेवाले मरणोन्मुख मनुष्यमें चैतन्यकी क्षीणता होती देख पड़ती है और श्वासोच्छ्वासको सर्वथा रोकनेवाले मनुष्यमें चैतन्यका विकास होता मालम देता है इसलिये प्राणवायु और अपान वायुके साथ भी चैतन्यका किसी प्रकारका सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता। अतः नास्तिकोसे यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणवायु और अपान वायुके अभावसे ही मुमे चैतन्यका आभाव है। उनके सिद्धान्त मुजब मुर्दमें भी समस्त भूतोंका समुदाय रहनेके कारण स्पष्टतासे चैतन्यकी उत्पत्ति होनी चाहिये, परन्तु ऐसा होता हुआ कहीं भी जान नहीं पड़ता, अतः उनका माना हुआ यह सिद्धान्त ही असत्य सावित होता है। यदि यह कहा जाय कि मृतशरीरमें तेज तत्वका अभाव है इस कारण उसमें चैतन्यका अस्तित्व मालूम नही देता । यह कथन भी निर्मूल ही है, यदि यह कथन सत्यमान लिया जाय तो मृतशरीरमें तेज तत्वका संचार करने पर भी उसमें चैतन्यकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती? अतः यह युक्ति भी असत्य ही है। यदि तेजतत्व और वायुतत्वके अभावके कारण मृतशरीरमें चैतन्यका अभाव मालूम होता है यह मान लिया जाय तो उस मृतशरीरमें उत्पन्न होनेवाले कीड़ों में जो चेतना शाक्त मालूम होती है वह किस तरह मालूम हो? अतः भूतोंसे चैतन्यकी उपत्ति होती है यह सिद्धान्त सर्वथा असत्य है। एक बात यह भी है कि यदि भूतोसे ही चैतन्य शक्ति बनती हो तोवस्तु मात्र/उसका आस्तित्वहोना चाहिये अर्थात् जिस तरहकी चेतना शाक्त मनुष्यों में देख पड़ती है वैसी हीघट,पट, लेखन, और कागज आदिमें भी होनीचाहिये, क्योंकि इन सव वस्तु ओं में भूतोका अस्तित्व है। यदियों कहा जाय कि जो भूत शरीरका श्राकार धारण करते हैं उन्हीसे चैतन्यकी उत्पत्ति हो सकती है
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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