SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीववाद ६७ नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्यका इस जगहसे दूसरी जगह जाना हम सब लोग नजरसे देख सकते हैं और इस देखनेसे ही इस हेतसे सूर्यमें भी गति होनी चाहिये ऐसा अनुमान कर सकते हैं । परन्तु आत्माके सम्बन्धमें ऐसा कुछ देखनेमें नहीं पाता और इस प्रकारका कोई गुण या क्रिया भी नजर नहीं आती कि जो श्रात्माके विना न रह सकती हो या न हो सकती हो । अर्थात् उपरोक्त अनुमानके द्वारा आत्माके विपयमें कुंच निश्चित नहीं कहा जा सकता । तथा शास्त्र प्रमाणसे भी आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि एक भी शास्त्र ऐसा नहीं है कि, जिसमें विवाद न हो एवं ऐसा कोई विवाद रहित शास्त्रकार भी नहीं कि जिसने आत्माको प्रत्यक्ष देखा हो । जो शास्त्र मिलते हैं वे सव ही परस्पर विरोधवाले हैं, इस लिये उनमेंसे किसे सत्य मानना और किसे असत्य मानना चाहिये ? अर्थात् आगम प्रमाणसे भी आत्माकी सिद्धि नहीं हो सकती। उपमान प्रमाणसे भी आत्माका पता नहीं लगता, क्योंकि उपमान प्रमाण एक दूसरेकी समानताको नजरसे देखकर उसके मिलानपरसे ही किसी प्रकारका निर्णय गढ़ सकता है। यहाँ पर जिस तरह आत्मा नजर नहीं आता उसी तरह उसके समान दूसरा भी कोई पदार्थ नजर नहीं आता इसले उपमान प्रमाण भी आत्माका निर्णय नहीं कर सकता । यदि यों कहा जाय कि काल, आकाश और दिशा वगैरह पदार्थ आत्माके समान हैं इस लिये इनके द्वारा आत्माका अनुमान किया जा सकता है । परन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि वे तमाम पदार्थ अभीतक विवादग्रस्त ही हैं, इस लिये ऐसे अधर पदार्थोका आधार लेकर आत्माकी सिद्धि किस तरह हो सकती है ? तथा ऐसा कोई गुण या क्रिया नहीं देखी और न कभी सुनी कि जो आत्माके वगैर हो ही न सके । अर्थात् यदि आत्माके विना न रह सकनेवाला गुण या क्रिया मिल सकी होती तो उसके द्वारा ही आत्माका निर्णय हो सकता, परन्तु इस प्रकारका तो कुछ भी नहीं मिलता इस लिये आत्माकी विद्यमानता किस तरह मानी जाय ? ऐसे किसी भी
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy