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________________ ६६ जैन दर्शन चाहिये इस तरहका नियम अंसत्य ठहरनेका संभव है, तो यह वात भी यथार्थ नहीं है, क्योकि परमाणु भले ही दृष्टिगोचर न हो किन्तु उनसे बनी हुई तमाम वस्तुयें देखने में आती हैं इस लिये अस्तित्ववाली वस्तु दृष्टिसे दीखनी ही चाहिये, इस नियमको जरा भी प्रांच नहीं पाती। आत्मा किसी भी तरहसे देखने में नहीं प्राता इस लिये उपरोक्त अनुमान प्रमाणसे भी आत्माका अभाव ही सिद्ध होता है । जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाणले आत्माका अस्तित्व सावित नहीं हो सकता उसी प्रकार अनुमान प्रमाणसे भी श्रात्माका पता नहीं लग सकता, क्योंकि अनुमान करनेका जो क्रम है वह आत्मामें घट नहीं सकता । उसका क्रम इस तरह हैसबसे पहले प्रत्यक्ष प्रमाणले दो वस्तुके याने एक साध्य और दूसरे साधनके सहचरपनको निश्चित करना चाहिये । अर्थात् अनुमान करनेवाला मनुष्य सवसे पहिले अनेक स्थलोंको देखता है और उन प्रत्यक्ष स्थलोंके याने रसोईघर, हलवाईकी दुकान, भटियारीकी दुकान, भड़भूजेकी दुकान और यज्ञका कुंड इत्यादि स्थलोको देखकर अग्नि और धूम्रके सहचरपनको निश्चित करता है और इसपरसे वह मनुष्य यह अनुमान वाँधता है कि जिस जिस जगह धूनां उठता हो उन सब जगहों में अग्नि होना ही चाहिये। . इस तरह निश्चित करनेपर अव वह किसी भी जगह धूम्र देखते ही वहाँ पर अग्निके अस्तित्वका अनुमान कर लेता है। इस तरहका अनुमान करनेका श्रम प्रात्मामें नहीं घट सकता क्यों . कि वह स्वयं ही नजर नहीं आ सकता, एवं उसका चिन्ह भी नजर नहीं आ सकता। इस प्रकार जहाँपर प्रत्यक्ष प्रमाणकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती वहाँपर अनुमान प्रमाणकी प्रवृत्ति किस तरह हो सकती है ? यह वात तो आप भी जानते ही हैं कि अनुमानकी प्रवृत्ति प्रत्यक्षके परवश है। यदि प्रत्यक्षसेही श्रात्माकी सिद्धि हो सकती हो तो फिर अनुमानकी जरूरत ही क्या रहे ? इस लिये किसी भी प्रकार जीवका पता नहीं लगता । तथा इस जगहसे दूसरी जगह पर जाता है इस लिये सूर्य भी मनुष्यके समान गतिवान् होना चाहिये । इस तरहके अनुमान द्वाराभी आत्माकी सिद्धि
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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