SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ जैन दर्शन आत्मवाद चार्वाक मतवाले जो आत्माको नहीं मानते दे अपना मत इस . प्रकार बतलाते हैं जगत, आत्मा कोई चीज ही नहीं, जो कुछ यह देख . पड़ता है सो सब कुछ पाँच भूतोंका ही खेल है। यह दीखता हुआ शरीररुप पुतला पंच भूतोसे बना है एवं चैतन्य भी इन्ही से उत्पन्न हुआ है, इस लिये इन भूतोंसे भिन्न और पुनर्जन्मको प्राप्त करनेवाला कोई प्रात्मा है यह माननेका कुछ भी कारण नहीं एवं इस मान्यता, कुछ प्रमाण भी मालूम नहीं देता। प्रत्यक्ष प्रमाण तो इंद्रियोंके द्वारा जानने में आनेवाली वस्तुओंको ही जान सकता है इस लिये उसके द्वारा आत्माका अस्तित्व नहीं जाना जा सकता, क्योंकि आत्मा इंद्रियोंके द्वारा मालूम नहीं हो सकती। यदि यों कहा जाय कि मैं घटको जानता हूँ, ऐसे खयालले जानकारके तौरपर आत्माकी शरीरसे भिन्न कल्पना की जा सकती है सही परन्तु यह वात ठीक नहीं, क्योकि इस प्रकार के खयालमें जानकारतया आत्माकी कल्पना करनेकी अपेक्षा नजरसे दीखते हुये शरीरको किस लिये न रक्खा जासके ? अर्थात् शरीरको ही जानकारके तौरपर क्यों न मान लिया जाय ? जिस प्रकार मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ, इस तरहके खयालमें आत्माको छोड़कर शरीरकी भी कल्पना करते हैं उसी प्रकार मैं जानता हूँ, इस तरहके खयालमें भी नहीं जानने में आये हुए श्रात्मा की कल्पना करनेकी अपेक्षा नजरके सामने दीखते हुए शरीरको जानकारपनका अधिकार क्यों न दिया जाय? अतः मैं घड़ेको जानता हूँ इस तरहका खयाल कुछ आत्माके अस्तित्वको सावित नहीं कर सकता । यदि यों कहा जाय कि शरीर तो जड़ है अतः उसे ज्ञान किस तरह हो सकता है ? तो यह वात ठीक नहीं. क्यों . कि शरीर भले ही जड़ हो परन्तु उसके साथ चैतन्यका सम्बन्ध होनेसे वह सब कुछ जान सकता और अनुभव कर सकता है। इस . लिये शरीरको ज्ञान होनेमें किसी प्रकारको क्षति नहीं आ सकती।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy