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________________ जीववाद वाला है और ये इसके धर्म हैं इस तरहकी भिन्न भिन्न वुद्धि भी किस तरह होगी? जीव और उसके गुणों या धर्मके बीच यदि सर्वथा अभेद ही मान लिया जाय तो जीव और गुण इस तरह दो वातं टिक नहीं सकतीं। किन्तु या तो एकला जीव ही ठहर सकता है या उसके गुण ही और ऐसा होनेसे मेरा ज्ञान, मेरा दर्शन, इस प्रकार जो गुणोका खयाल सर्वथा जुदा होता है सो भी किस तरह हो सकेगा? और इस प्रकारका सर्वथा जुदा खयाल भी सभीको होता है। अतः ज्ञान, दर्शन और सुख वगैरह धर्माले जीवको जुदा भी मानना चाहिये और एक भी मानना चाहिये। परन्तु जो वैशेषिक मतवाले धर्म और धर्मके. वीच मात्र एक जुदा ही कोई मानते हैं एवं बौद्ध मतवाले धर्म और धोके वीच एकले अभेदको ही मानते हैं, उन दोनोंकी मान्यता यथार्थ मालूम नहीं देती । आत्माको कर्मवश होकर अनेक गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है और अनेक शरीरोको धारण करना पड़ता है इस लिये शात्माको परिणामी ( परिणाम पानेवाला) नित्य मानना चाहिये। किन्तु जो चार्वाक मतवाले इसे नित्य ही नहीं मानते और नैयायिक मतवाले उसे अपरिणामी नित्य याने जिसमें किसी तरहका परिवर्तन ही न हो सकता हो ऐसा ही मानते हैं वह भी युक्तियुक्त मालुस नहीं देता । आत्मा अच्छे और बुरे कर्माका कर्ता है एवं स्वयं किये हुवे कर्मफलको मुख्यतया भोगनेवाला भी वही है। इससे प्रात्मा कर्त्ता भी है और भोका भी, ऐला मानना आवश्यक है। किन्तु सांख्य मतवाले जो आत्माको अकर्ता मानते हैं और गौणतया भोक्ता मानते हैं वह भी उचित मालूम नहीं देता । आत्माका मुख्य लक्षण चैतन्य याने शान है और वह दो प्रकारका है। सामान्य ज्ञान और विशेप ज्ञान, अर्थात् आत्मा चैतन्य स्वरूप है परन्तु नैयायिक मतवाले जो आत्माको चैतन्य स्वरूप नहीं मानते यह अनुचित मालूम होता है। जैनदर्शनमें इस प्रकार जीवका स्वरूप कथन किया हुआ है।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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