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________________ ईश्वरवाद तथा यह तो हम कह ही गये हैं कि कवलाहार और केवलशान इन दोनों में किसी प्रकारका जरा भी विरोध न होनेसे जिस तरह केवलशानी सुखको भोग सकता है उसी तरह आहारको भी ग्रहण कर सकता है, इस प्रकार पुष्ट दलील और प्रमाणोले केवलज्ञानीको भोजन करनेकी सिद्धि हो सकती है, अतएव हम केवलज्ञानीको निराहारी न मानकर भोजन करनेवाला मानते हैं और आपसे भी यह कहते हैं कि श्राप भी उसे भूखा रहनेवाला न मानकर आहार करनेवाला ही माने । इस प्रकार जैन मतके देवका स्वरूप पूर्ण होता है। नवतत्व. अब जैन धर्मके तत्वोंका ब्यौरा इस प्रकार है-इस मतमें नव तत्व माने हैं और वे इस तरह हैं जीव, अजीच, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा, और मोक्ष । चेतना याने अनुभव करना यह जीवका लक्षण है। अजीव जीवसे सर्वथा विरुद्ध है, अर्थात् वह चेतना रहित है। अजीवके पाँच प्रकार हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुग्दलास्तिकाय । इन दो जीव और अजीव तत्वोंमें ही जगतके समस्त भावोंका समावेश हो जाता है। कितने एक लोक ज्ञान, इच्छा, प्रयत्ल और . संस्कार वगैरहको तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द वगैरहको द्रव्यके गुण कहकर भिन्न तत्वरुप तया मानते हैं और हलन चलन वगैरह क्रियाओको कर्म कहकर भिन्न तत्वमें गिनते हैं एवं सामान्य, विशेष और समवायको भी अलग अलग तत्व समझते हैं । परन्तु हमारी समझ मुजव थे गुणक्रियायें या सामान्य वगैरह तत्व जीव और अजीवसे भिन्न नहीं हो सकते-जुदे नहीं रह सकते, इसी लिये हम इन दो ही तत्वोंको समस्त तत्वोंमें अग्रस्थान देते हैं। यदि यों कहा जाय कि ये गुण और क्रिया वगैरह तत्व सर्वथा
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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