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________________ जैन दर्शन ५८ तप करने की कोई जरूरत न होनेसे वह केवली उस प्रकारके किसी तपको नहीं करता । श्रर्थात् केवलको भूखा रहनेका श्रव कोई भी कारण वाकी नहीं रहता । इस विपयको विशेषतः निश्चित करनेके लिए कितने एक अनुमान भी किये जासकते हैं और वे इस प्रकार केवलज्ञानीका शरीर हमारे शरीरके जैसा ही है इस लिये इस शरीरमें भूखा रहनेसे जो पीड़ा हमें होती है वह उसे भी हो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । अतः केवलज्ञानीको भी हमारे समान भोजन करनेकी जरूरत है । कदाचित् यहाँ पर आप यह कहें कि केवलज्ञानीका शरीर हमारे शरीरके जैसा नहीं, क्योंकि उसका शरीर तो स्वभावसे ही पसीना और दुर्गंधसे रहित होता है और हमारा शरीर पसीने एवं दुर्गंधवाला होता है । इल लिये उसका शरीर हमारे शरीरके जैसा न होनेसे उसे भोजन करने की आवश्यकता हो नहीं सकती । तब फिर महाशयजी ! आपका पूर्वोक्त कथन सर्वथा असत्य ही सिद्ध होता है। क्योंकि केवलज्ञानी होनेसे पहले भी उस केवलीका शरीर पसीना और दुर्गंध से रहित होता है तथापि उसे आप भी उस वक्त भोजन करनेकी श्रावश्यकता मानते हैं । इस लिये प्राप इस दलीलसे किसी तरह भी केवलीको भूखा नहीं रख सकते । तथा किसी केवलीका लाखों वर्षका श्रायुष्य होनेसे उसके शरीरको उतने समयतक टिका रखने के लिये जिस प्रकार आयुष्य कर्म कारण है उसी प्रकार इस हेतुसे उसे भोजन करनेकी भी श्रावश्यकता माननी चाहिये । केवलीको तेजस् शरीर जो आहारको पचाने में मुख्य साधनभूत है उसका अस्तित्व होनेसे केवलीको भूख लगे इसमें कोई संदेह नहीं । इल प्रकार प्रहार करनेके समस्त कारण केवलीके साथ सम्वन्ध रखने से किसी भी तरह उसका निराहारीत्व सिद्ध नहीं हो सकता । ज्ञानावरणका नाश होनेपर भूखका भी नाश होता है और ज्ञानावरणके अस्तित्व में ही भूख लगती है ऐसा भी कोई नियम नहीं । यदि ऐसा नियम ही हो तो मनुष्यमात्रको भूख ही न लग्नी चाहिये, क्योंकि उनके ज्ञानावरणका नाश रोज हुग्रा ही करता है ।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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