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________________ ईश्वरवाद मानते हैं कि यह जगत ईश्वरकी लीला है, अर्थात् ईश्वरकी लीला द्वारा ही जगतकी रचना होती है और लीलाद्वारा ही जगतका पालन होता है। अकर्तृवादी-महाशयजी! रागद्वेषरहित ईश्वरमें लीला किस तरह हो सकती है ? ईश्वर तो वही हो सकता है कि जो लीला को भी पार कर गया हो । सर्वज्ञ सर्वदर्शी ईश्वरसे कदापि लीला नहीं हो सकती और उसके अभावसे वह जगत रचनाकी उलझनमें पड़ नहीं सकता, । कर्तृवादी-ठीक यह भी जाने दो, हम ऐसा मानते हैं कि ईश्वर अपने भक्तोंको तारने के लिये और दुष्टोंको मारने के लिये जगत की रचना करता है। __ अकर्तृवादी-आपकी यह दलील भी निर्मुल ही है क्योंकि रागद्वेषरहित ईश्वरको सर्वत्र समभाव होता है। समभावी ईश्वर का कोई भक्त या दुश्मन हो ही नहीं सकता । अर्थात् उसे किसी पर राग या द्वेप नहीं होता । ईश्वरको जगतरचयिता सावित करनेके लिये आपकी एक भी दलील युक्तियुक्त नहीं मिलती। कर्तृवादी-खैर महाशयजी! हम आपके सामने एक दलील और पेश करते हैं यदि सीधी पड़ी तो ठीक है अन्यथा हार माननेमें हमें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं है। अब हम यह मानते हैं कि ईश्वरका स्वभाव ही ऐसा है जिसले जगतकी रचना दुआ करती है। अर्थात् जगतकी उत्पत्ति होनेमें ईश्वरके स्वभावके सिवाय अन्य कुछ भी कारण नहीं। अकर्तृवादी-यह तो आपने ठीक कहा, परन्तु जव श्राप यहाँ तक माननेको तैयार हुवे हैं कि ईश्वरके स्वभावसे ही जगत की उत्पत्ति हुआ करती है तो यदि इसके बदलेमें यो मान लें कि कर्मके स्वभावसे जगतकी रचना हुआ करती है तो आपको क्या हरकत आती है? वास्तविक कर्मके स्वभावको छोड़कर प्रमाणरहित जवरदस्ती ही जगतका तरीके ईश्वरकी कल्पना करना यह हमें तो क्या परन्तु किसी भी विचारशील विद्वानको
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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