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________________ ३० - जैन दर्शन कौनसा मनुष्य है कि जिसमें जानकारपन न हो? अर्थात् ईश्वर के समान ही जीव मात्रका जानकारयन जगतकी रचनामे कारणभूत होनेसे ईश्वरके एकत्वका भंग हो जायगा । क्यों कि जानकार पन तो सबमें समान ही है। कर्तृवादी-यदि ऐसा है तो हम ईश्वरत्वके पूर्वोक्त अर्थको न मान कर उसमें सर्वज्ञत्व मानेगे और उस सर्वशत्वको जगत . रचनाका कारण मानकर ईश्वरके कर्तृत्वको सिद्ध करेंगे, फिर कहिये अव तो कोई दूपण नहीं आता न?। • अकर्तृवादी-यण क्यों नहीं? इसमें तो वहीं दूपण उपस्थित होता है। यह दूसरा मन्तव्य माननेसे कदाचित् ईश्वर वुद्धदेव वगैरहके समान समस्त जगतको जाननेवाला सर्वज्ञ सावित हो सकता है परन्तु जगतको बनानेवाला तो किसी तरह भी सिद्ध नहीं होता। कर्तृवादी-खैर यदि यह भी आपको दूषित प्रमाण मालूम होता है तो हम ईश्वरत्वका अर्थ करनेवाला या रचयिता ही करते हैं, अव फरमाइये इसमें क्या दोष है ? अकर्तृवादी-महाशयजी! करनेवाला या कर्तृत्वभाव मानने मात्रसे आपके कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। क्यों कि कर्तृत्व भाव तो सबमें ही रहा हुआ है । जैसे कि जिस प्रकार ईश्वरमें कर्तृत्व भाव है उसी प्रकार कुंभार, लुहार वगैरहमें भी है तो फिर एकला ईश्वर ही कर्ता क्यों गिना जाय ? क्यों कि कर्ता मात्र कर्तृभाव तो समान ही है । इस लिये सब ही कर्ताओंको ईश्वर वननेका प्रसंग उपस्थित होगा। कर्तृवादी-खैर महाशयजी हम इन सवको छोड़ कर, अर्थात् जानकारपन एवं करनेवालापन-कर्तृकभाव इन्हें छोड़ कर इससे भिन्न जो कुछ भी उसमें है उस ही हम ईश्वरत्व समझते हैं और उसके द्वारा हीजगतकी रचना होती है, ऐसामानने में क्या दोष है? अकर्तृवादी-भाई ! यह तो श्रापकी विचित्र ही मान्यता है। . श्रापका यह कथन हमारी या अन्य किसी भी विचारशील मनुष्य की समझमें ही नहीं सकता। हम तो समझते हैं कि आपकी
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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