SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन कर्टवादी-आप तो युक्ति प्रयुक्तियों द्वारा हमे पीछे हटानेके लिये मथते हैं, परन्तु हम इस प्रकार आपकी युक्तिप्रयुक्तियाँले पीछे नहीं हट सकते। यदि हमारे कथन किये हुये पूर्वोक्त रचना के स्वरूप यथार्थ रीतिसे न घट सकते हो तो कुछ हरकत नहीं, हमने इस वारेमें भव इनसे जुदे और दूषण रहित नियम निर्माण किये हैं और वे इस प्रकार हैं श्राप ध्यान देकर सुनें । जो वस्तु अस्तित्वमें न हो परन्तु सिर्फ उसके कारणों के समवाय ( सदैव रहनेवाला सम्बन्ध) की ही विद्यमानता हो उस वस्तुको रचना समझना । अव फरमाइये हमारे निर्माण किये हुये रचनाके इस लक्षण या स्वरूपमें क्या दूपण है ? __ अकर्तृवादी-महाशयजी! आपके कथन किये इस नवीन स्वरुपमें भी आपका वचन भंग हो जाता है । देखिये कि इस उपरोक्त लक्षणमें एक प्रकारके सदा रहनेवाले सम्बन्धको ही आपने रचना कहनेका साहस किया है। अब आप स्वयं ही इस बात पर विचार करें कि जो सदैव रहनेवाला-नित्यत्ववाला हो उसे रचना या बनावटके तौर पर किस प्रकार माना जाय? यदि किसी प्रकारके नियम विना ही चाहे जिस वस्तुको रचना या वनावट तरीके स्वीकार किया जा सकता हो तो पृथवी आदि भावोंको भले ही आप सिर्फ बोलने में ही रचना कहे परन्तु वास्तवमें वे रचनात्मक सिद्ध न होकर आपके माने हुए समवाय-नित्य सम्बन्धके समानही नित्य सिद्ध होते हैं। इस प्रकार रचनाके इस नवीन लक्षणमें तो श्रापको दोनो प्रकारले हानि ही है और वह यह कि यदि इस लक्षणको आप यथार्थ मानेंगे तो या तो आपको सदैव रहनेवानी चीजको अनित्य मानना पड़ेगा और या अनित्य वस्तुको नित्य स्वीकारना पड़ेगा। तथा दूसरे यह भी एक सवाल पैदा होगा कि अन्य वस्तुओकी तरह कर्मोंका नाश होना यह भी एक रचना या वनावट है, परन्तु इस रचना किंवा वनावटको यह आपका निर्माण किया हुआ सिद्धान्त किसी भी अंशमै चरितार्थ नहीं होता, क्यों कि काका एकदफा सर्वथा नाश होना यह एक प्रकारका अभाव है । अर्थात् यह कोई वस्तुरूप नहीं है । इससे यह अभाव
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy