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________________ ईश्वरवाद १३. पड़ेगा। आकाश सर्वत्र अखण्ड होने पर भी भिन्न भिन्न विभागोंमें जुदा जुदा भी मालूम होता है । अव यहाँ पर विचार यह करना चाहिये कि जो जुदे जुदे विभागवाली हो यदि वही रचना मानी जाती हो तो इसमें नित्य आकाशका भी समावेश हो जाता है और ऐसा होने पर आपको भाकाशको भी रचना मानना पड़े गा। इस लिये प्रापका यह तीसरा लक्षण भी योग्य और प्रमाणिक नहीं है । कर्तृवादी-अच्छा अब हम रचनाका चौथा लक्षण कायम करते हैं। जिस रचनाको देखनेसे देखनेवाले मनुष्यको यह ग्राभास होता हो कि वह अवयववाली है, उसे हम रचना मानते हैं। हमें विश्वास है कि हमारे कथन किये हुये अव इस अन्तिम लक्षणमें किसी भी प्रकारकी त्रुटि न निकल सकेगी और इसके . द्वारा रचना करनेवाले पुरुपकी सिद्धि बड़ी ही सुगम और सरलतासे हो सकती है। अकर्तृवादी महाशयजी! यह तो आपका सिर्फ मोह गर्भित भ्रम मात्र ही है । क्यों कि जो दूषण आपके तीसरे लक्षणमें भाता है सो ही यहाँ पर खड़ा है। आप जरा विचार करें कि आकाश तो सर्वत्र ही रहा हुआ है यह वात तो निर्विवाद ही है, इससे इसे देख कर यह अवयववाला है इस प्रकारका भास किसे नहीं हो संकता? ऐसा होनेसे श्राप जिस आकाशको अवनावटी-रचना रहित मानते हो उसे ही आपको वनावटी याने रचना मानना पड़ेगा और ऐसा माननेसे भापका ही सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। । इतनी चर्चासे ही पाठक महाशय समझ सकते हैं कि जब रचनाके स्वरूपकी ही जड़ नहीं जमती तो फिर " सूत्नं नास्ति कुतः शाखा" इस कहावतके अनुसार रचना करनेवालेकी सिद्धि तो हो ही कहाँसे ? तात्पर्य यह है कि जगतमें ईश्वरतया पूजित आत्मा जगतको रचनेवाला या उसका पालक सिद्ध नहीं हो सकता। अभी तककी चर्चासे तो अकवादीका सिद्धान्त वुद्धिगम्य और युक्तियुक्त मालूम होता है।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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