SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ईश्वरवाद होना चा भिन्न भिन्न कहते हैं। उसे ही नाको देखनेसे देखनेवालेको वह अवयववाली है यह भाव पैदा होता हो । वनावट-रचनाके इस प्रकारके भिन्न भिन्न स्वरूपों में से श्रापको कौनसा स्वरूप मान्य है यह मालूम होना चाहिये। • कर्त्तावादी--जो रचना भिन्न भिन्न विभागोंमें विभाजित की जा सकती हो उसे ही हम वनावट या बनाई हुई अथवा रचना कहते हैं । जमीन पानी और पर्वत वगैरह भिन्न भिन्न विभागों में विभाजित हो सकनेके कारण रचनात्मक हैं । इस प्रकारको मान्यता द्वारा ही हमें इन वस्तुओंके रचयिताका खयाल होता है। भकर्तवादी-महाशयजी! ऐसी तो वहुतसी वस्तुयें हैं कि जो भिन्न भिन्न विभागोंमें विभाजित की जा सकती हैं परन्तु श्राप ही उन्हें रचनात्मक नहीं मानते । दृष्टान्तके तौर पर, सामान्य, नामक वस्तुको ध्यानमें रख कर विचार करोगे तो आपको स्वयं ही मालूम हो जायगा । आप सामान्यको नित्य मानते हैं, अर्थात् उसे किसी की रचना या वनावट नहीं मानते । वह सामान्य पृथक् पृथक्विभागों में विभाजित हो सकता है। जैसे कि घटत्व (घट सामान्य) पटत्व (पट सामान्य) मनुष्यत्व (मनुष्य सामान्य) और गोत्व (गासामान्य) श्रादि। अतएव आपके कथन किये हुए रचनाके अर्यमें इस सामान्य नामक वस्तुका भी समावेश होजाता है अत: आपको जमीन पर्वत आदिकी तरह सामान्यको भी रचना के तौर पर मान कर किसीको उसका रचयिता भी कल्पित करनाः चाहिये । अर्थात् यदि आप रचना का पूर्वोक्त ही लक्षण मान्यः ___* जिस गुण या क्रियाके द्वारा भिन भिन्न देख पढ़ती वस्तुओंमें भी समानता विदित हो सके उसे 'सामान्य, कहते हैं। जैसे कि आपके सामने पांच घडे रख्खे हैं। उनमें एक धडा सुवर्णका है, दूसरा चांदीका, तीसरा तांबेका, चौथाः पीतलका और पांचवा मटीका है । यद्यपि ये पांचों घढे जुदी जुदी धातुके बने हुये हैं और रंगरूपमें भी भिन्न भिन्न हैं तथापि इन सबमें एक ऐसा गुण रहाः हुआ है कि जिसके द्वारा वे जुदे जुदे होने पर भी उस एक ही बोलसे पहचाने जासकते हैं। उस गुणका नाम घटत्व है और वह घटत्व तमाम घडोंमें एक सरीखा है। बस इसी को सामान्य कहते हैं ।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy