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________________ १० जैन दर्शन प्रभु ईश्वर ठहरता है । हम उस एकको ही देवतयां मानते हैं। वही एक पुरुष हम सबोंका निर्माता हो सकता है और पालक होनेके कारण हमारा पूजनीय और वन्दनीय हो सकता है । हमें उसीकी उपासना करनी चाहिये। अकर्तृवादी-भाई ! बुद्धिकी लीला अगम्य है, तर्कका महिमा अगाध है। तर्क और युक्ति सत्यको असत्य और असत्यको सत्य उहरा सकती है। ईश्वर जैसी व्यक्ति भी कि जहाँ पर तर्क पहुँच भी नहीं सकती आज तर्कके, ही द्वारा सिद्ध की जाती है, यही तर्कका महिमा है। जिस तरह आप सिर्फ दृष्टान्तों और दलीलों द्वारा ही ईश्वरको कर्त्ता सिद्ध कर रहे हैं हम भी इसी तरह बल्कि इससे भी सवाई युक्तियों और दलीलों द्वारा ईश्वरको अकर्ता सिद्ध करते हैं। देखिये जरा ध्यान दीजिये । ___ आपने जो यह एक साधारण नियम कायम किया कि कर्ताके विना एक भी बनावट वस्तु बन नहीं सकती, वस्तुमात्रको देखनेसे उसके वनानेवालेका ज्ञान होजाता है, और यह वात सर्व साधारण जनता समझ सके ऐसी लरत्न और सुगम है। वेशक श्रापकी दृष्टिसे ऐसा होगा. स्थूलबुद्धिवाने मनुष्य भले ही इस नियमको सत्य और सरल समझले परन्तु जो सूक्ष्म बुद्धिवाले और प्रमाणोंके द्वारा सत्यासत्य स्वरूपको समझनेवाले विद्वान पुरुष हैं उनकी दृष्टि में यह श्रापकी युक्ति या सरत्न नियम भोले मनुष्योंको भ्रममें डालनेवाली एक युक्ति है । हम इस विषयमें सिर्फ इतना ही पूछते हैं कि आपकी दलीलमें उपयुक्त किये हुये बनावट शब्दका श्राप क्या अर्थ करते हैं ? अर्थात् हम किस चीजको बनाई हुई समझे और किसको अवनाई हुई । इस वारेमें निश्चित ज्ञान करनेके लिये इस बनावट शब्दका स्पष्ट तया विवेचन करनेकी आवश्यकता है । क्या आप इसे बनावट-बनाई हुई समझते हैं कि जो रचना अवयव सहित हो, याने जो भिन्न भिन्न विभागोंमें विभाजित की जा सकती हो, । अथवा जिस रचनाकी नीव अवयवोंभिन्न भिन्न विभागोंसे चिनी जाती हो, किंवा जो रचना अखण्ड़ होने पर भी भिन्न भिन्न विभागवाली देख पड़ती हो, या जिस रच
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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