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________________ १७४ जैन दर्शन इस रूपसे सत् और भूत एवं भविष्य वर्ष की अपेक्षाले असत् है। चालू वर्षमें भी वह वसन्तऋतुमे बनाया गया है अतः इस रूपमें सत् और दूसरी अतुओंकी अपेक्षाले असत् है। इसमें भी वह . ताजा है अतः नवीन स्पसे सत् और पुराने रुपसे असत् है। उसमें भी वह आजका बना हुआ होनेसे इस रुपमें सत् और दूसरे रूपमें असत् है। उसमें भी वह वर्तमान क्षणमें वर्तता होनेसे इस रूपसे सत् और दूसरे रूपमें असत् है। इस प्रकार कालकी अपेक्षासे भी घटके स्वपर्याय असंख्य हैं, क्योंकि एक पदार्थ असंख्य कालतक टिक सकता है। यदि उसकी अनन्तकालतक टिक रहनेकी कल्पना की जाय तो उसके अनंत पर्याय भी हो सकते हैं और परपर्याय तो अनंत हैं ही। क्योंकि उपरोक्त कालके सिवाय दूसरे कालमें वर्तते हुये अनन्त द्रव्योंकी अपेक्षासे उसे घटाना है। अव भावकी अपेक्षासे घटकी विचारणा की जाती है।. । वह घड़ा रंगसे पीला है अतः उस रुपमें सत्-और वाकोके रंगोंकी अपेक्षासे असत् है । वह पीला है तथापि अन्य समस्त पीली वस्तुओंले कुछ जुदा ही पीला है अतः वह उसी. रुपमें सत् और अन्य पीले रूपसे असत् है। अर्थात् यहाँपर इस प्रकार घटाना चाहिये कि वह घड़ा अमुक पीले पदार्थसे एक गुना पीला है, अमुक पीले पदार्थसे दुगुना पीला है, अमुक पाले पदार्थसे तिगुना पीला है, इस तरह अमुक पाने पदार्थसेअनन्त गुना पाला है। वहाँतक समझ लेना चाहिये और इसी प्रकार ऐसे भी घटना चाहिये कि वह घड़ा अमुक पाले पदार्थसे एक गुना कम पाला है, अमुक की अपेक्षा दूना कम पीला है और अमुककी अपेक्षा तीन गुना कम पाला है, ऐसे अमुककी अपेक्षा अनन्त गुण कमती पीला है, यहाँतक समझ लेना चाहिये। इस तरह सिर्फ एक पीले रंगकी अपेक्षासे एकले घटके ही स्वपर्याय अनन्त हो सकते हैं । जैसे पाने रंगकी तरतमताकी अपेक्षा उसके अनन्त पर्याय हो सकते हैं . वैसे ही नील वगैरह रंगको तरतमताकी अपेक्षाले भी घटके परपर्याय अनन्त हो सकते हैं। इसी प्रकार घटके निजी रसकी अपे-.. क्षासे और पर रसकी अपेक्षासे अनन्त स्वपर्याय और अनन्त पर
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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