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________________ १५७ मोक्षके याने श्रनन्तज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, मुख और वर्यिरूप - मोक्षके योग्य होता है, एवं वह सर्वथा वन्धरक्षित स्थितिका पात्र बनता है | एकले ज्ञान या एकली: क्रियासे मोक्षके लायक नहीं वन सकता, परन्तु ज्ञान और क्रिया ये दोनों ही साथमें हों तब ही मोक्षप्राप्तिकी योग्यता आ सकती है । सम्यग्ज्ञान और सम्यग् दर्शन ये दोनों साथमें रहने के कारण, याने जहाँ सम्यग्ज्ञान हो वहाँपर निश्चित सम्यग्दर्शन रहनेले यहाँपर सम्यग्ज्ञानके भावमें सम्यग्दर्शनको भी समझलेना चाहिये। क्योंकि वाचक मुख्य श्री उमास्त्रातिजीने तत्वार्थमूत्र में सबसे पहिले कहा है कि " सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग् चारित्र, यह मोक्ष मार्ग है" । प्रमाणवाद प्रमाणवाद प्रत्यक्षादि प्रमाणका विशेष स्वरूप ग्रन्थकार अपने आप ही स्पष्टतया कथन करेंगे। विशेष स्वरूप सामान्य स्वरूप विना और सामान्य स्वरूप विशेष स्वरूप विना रह नहीं सकता, इस प्रकारका उन दोनों में धनिष्ट सम्बन्ध है और उस विशेष स्वरूपका ज्ञान सामान्य स्वरुप जाने विना यथार्थ रीतिसे नहीं होता श्रतः उस विशेष स्वरूपको बतलाने के पहले यहाँपर प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाया जाता है और वह इस प्रकार है अपने और दूसरेके स्वरुपका याने वस्तुमात्रके स्वरुपका निश्चय करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं- शंका, भ्रम, और श्रनिश्चय ये तीन बातें प्रमाणरुप ज्ञानमें हो नहीं सकतीं । ये प्रमाण ज्ञानके चिन्ह हैं । वस्तुका सर्वथा सामान्य ज्ञान अर्थात् 'वह कुछ है ' इससे भी अधिक अस्पष्ट ज्ञान जिसका दूसरा नाम जैन परिभाषा 'दर्शन' है, वह किसी प्रकारका व्यवहारी निश्चय मालूम करानेवाला न होनेसे प्रमाणरूप नहीं । वैसे ही पदार्थ और इन्द्रियोका सम्बन्ध जो ज्ञानरूप नहीं है वह भी प्रमाणरूप नहीं माना १ देखिये -- तत्वार्थ सूत्रके प्रथम अध्यायका प्रथम सूत्र
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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