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________________ १५६ जैन दर्शन. चाहिये कि जहाँपर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हो वहाँही. सम्यक्चारित्र हो सकता है । तथाप्रकारके भव्यत्वका परिपाक होनेपर जिस मनुष्यको ये तीनों याने सम्यग्दर्शन् , सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र प्राप्त होते हैं वह मनुष्य सम्यग्ज्ञान और क्रियाके योगसे मोक्षका भाजन हो सकता है।। जीपके दो प्रकार हैं। एक भव्य और दूसरा अभव्य । जो जीव. अभव्य हैं उन्हें सम्यक्त्वादिकी प्राप्ति नहीं होती और जो जीव भव्य हैं उन्हें भी जवतक उनका भव्यत्व परिपक्कताको प्राप्त नहीं होता तबतक सम्यस्त्वादि नहीं होता । उनका भव्यत्व परिपक होनेपर उनसे सस्यस्त्व वगैरह तीनों ही गुण होते हैं । भव्य याने. लिद्धि गति प्राप्त करनेके योग्य प्रात्मा । मोक्ष प्राप्त करनेकी योग्यताको भव्यत्व कहते हैं। वह भव्यत्व जीवोका एक परिणाम विशेष है और वह अनादिकालीन है। भव्यत्व शब्दका अर्थ इस प्रकार है भव्यत्व तो भव्य जीवमात्रमें रहा हुआ है, परन्तु उसमें द्रव्य क्षेत्र काल और गुरु वगैरहकी सामग्रीके कारण अनेक प्रकारकी भिन्न भिन्न शक्तियोंका प्रादुर्भाव होता है और ऐसा होनेसे ही उसके एकके भी अनेक भेद हो जाते हैं । यदि वह' भव्य जीवमात्रमें रहा हुशा भव्यत्व एक ही समान शक्ति धारण करता हो तो फिर प्रत्येक भव्य जीव एक ही समय-एक साथ ही धर्म प्राप्त कर सकते हैं ऐसा होना चाहिये । परन्तु ऐसा होता. हुआ. मालूम नहीं देता, अतः भव्य जीव मात्रसे भिन्न २ शक्ति धारण करनेवाला भिन्नरभव्यत्व मानना यह उचितही मालूम होता . है। जैसे पात्र असुक समय ही मीठा रस चखा सकता है वैसे ही भव्य जीवमें रहा हुआ भव्यत्व भी अमुक समयपर ही अपना वास्तविक रस चखा सकता है । अर्थात् वह भव्यत्व जिस वक्त परिपक्कताको प्राप्त होता है उस वक्त ही अपना फल देनेके. लिये तयार हो सकता है । जिस किसी मनुष्यके कर्मोकी अवधि एक करोड़ सागरोपमके भीतर आगई हो वैसे भव्य मनुष्यको ये तीनों वस्तुये-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, और सस्या चारित्र . होते हैं और वैसा ही मनुष्य ज्ञान, दर्शन, . चारित्रके सहवाससे
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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