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________________ १३६ जैन दर्शन गुणोंका नाश मानते हैं तो हमें भी कुछ वाध नहीं आता क्योंकि हम भी यही मानते हैं कि मोक्ष दशामें इद्रियों या इंद्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले अनुभव इनमेंसे कुछ भी विद्यमान नहीं रहता। यदि आप ऐसा मानेंगे कि मोक्ष दशामें अतींद्रिय गुणोंका भी नाश हो जाता है तो उसमें जो दूषण भाता है वह इस प्रकार है-. __ संसारमें जो कोई भी मनुष्य मोक्षार्थी है वह ऐसा समझकर ही मोक्ष प्राप्तिकी प्रवृत्ति करता है कि मोक्षदशामें अनन्त और किसी भी सुखकी समानता धारण न करे ऐसा सुख और शान कायम रहता है। मोक्षार्थियों में किसी को भी ऐसी इच्छा नहीं होती कि मोक्षप्राप्तिके बाद जो ज्ञान और सुख वगैरह वर्तमानमें विद्यमान है उससे भी हाथ धोने पड़ेंगे! और एक पत्थरके' संमान दशा भोगनी पड़ेगी। यदि सचमुच ही मोक्ष दशामें पत्थरके समान जड़ जैसा होकर पड़े रहना पडता हो तो संसारमें एक भी मनुष्य मो. क्षके वास्ते प्रवृत्ति करे ही नहीं। ऐसे मोक्षसे तो यह संसार ही अच्छा है कि जिसमें थोड़ा थोड़ा तो सुख मिला करता है। अतः वैशेषिक मतवालोंने जो मोक्षका स्वरूप कल्पित किया है वह किसीको भी रुचिकर नहीं हो सकता। कहा भी है कि "वृन्दाचनमें निवास करना अच्छा, गीदड़ोंके साथ रहना अच्छा, परन्तु गौतमऋषी, वैशेषिकोंकी मानी हुई मुक्तिको प्राप्त करनेके लिये खुपी नहीं।" इसी प्रकार मोक्षके सम्बन्ध मिमांसा मतवाले भी कहते हैं कि-"जवतक वासना वगैरह यात्माके समस्त गुणोंका सर्वथा नाश नहीं होता तबतक दुःखका सर्वथा नाश नहीं हो सकता। सुख और दुःखका कारण धर्म और अधर्म हैं ये दोनों ही संसाररूप घरके स्तम्भ हैं। इन दोनों स्तम्भोका नाश होनेपर शरीर वगैरह टिक नहीं सकते और ऐसा होनेसे ही, आत्माको सुखदुःख नहीं हो सकता, अतएव वे मुक्त आत्मा कहलाते हैं। जब आत्मा मोक्षकी दशाको पहुँचता है तव वह कैसा होता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है-वह मुक्तात्मा अपने स्वरूपमें रहा हुधा है, समस्त गुगोंसे मुक होता है और उल वक्तका उसका रूप संसारके बन्धनोले एवं दुःख तथा क्लेश रहित
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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