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________________ १३० जैन दर्शन त्यो त्यों ऊंचे आता है और जब उसके ऊपरका कर्मभार सर्वथा उखड़ जाता है तब वह तूंवेके समान लोकके ऊपरी भागतक पहुँच जाता है। जिस प्रकार एरंडकी पकी हुई फली फूटनेके साथ ही उसके अन्दरके वीज ऊपर उड़ते हैं, वैसे ही कर्मोके वन्धनोंका नाश होते ही प्रात्मा उच्च गति करता है । जीवोंका मूल स्वभाव ऊंचे जानेका है और जड़ोंकी मूल प्रकृति नीचे जानेकी है। जिस प्रकार स्वभावसे ही पत्यरका टुकड़ा नीचे पड़ता है, वायु तिरकी गति करता है और अग्निकी ज्वाला ऊंची जाती है, वैसे ही प्रात्माकी उर्च गति भी स्वाभाविक याने नैसर्गिक ही है। जीवोंकी जो अधोगति उर्ध्वगति (स्वर्गादिगति) और तिरछी गति होती है वह उनके कोंके कारण ही है और कर्म रहित जीवोंकी जो उर्ध्वगति लोकके अन्ततक होती है वह स्वाभाविक है। यदि कोई यह कहे कि ऊंचे जाता हुआ कर्म रहित जीव लोकके अन्त भागतक जाकर ही क्यों अटक जाता है ? उससे आगे क्यों नहीं जाता? इसका उत्तर इस प्रकार है-लोकसे बाहार याने उस स्यानले श्रागे धर्मास्तिकाय नामक तत्व नहीं है इससे वह अधिक ऊंची गति नहीं कर सकता और धर्मास्तिकाय विना किसीकी भी गति हो नहीं सकती यह बात हम पहले ही विदित कर चुके हैं। यह विषय तत्वार्थ सूत्रके भाष्यमे वतलाया गया है । कदाचित् यह मान लिया जाय कि १ मुक्त आत्माके उचगमनके विषयों कयन करते हुये तत्वार्थ सूत्रमें (पृ. २४४ में) इस प्रकार विदित किया है " तदनन्तरमेवोर्चमालोकान्तात् स गच्छति। . पूर्व प्रयोगा-5 संगत्व-वन्यच्छेदो-र्व नौरवैः ॥ १॥ . पूर्व प्रयोगः-कुलालचक्ने दोलयामिषौ चाऽपि यथेष्यते। पूर्व प्रयोगात् कर्मेह तया सिद्धगतिः स्मृता ॥ २ ॥ असंगत्व:- मृल्लेप संग निर्मोक्षाद् यथा दृष्टाऽप्सस्वलाबुनः । . कर्मसंग विनिर्मोक्षात् तया सिद्धगतिः स्मृता ॥३॥
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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