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________________ १२८ जैन दर्शन . होनेसे ही यह नियम रागद्वेषादिमें भी उपयुक्त नहीं हो सकता। अतः रागद्वेषादिसे विरुद्ध भावना करनेपर भी प्रात्माको राग वगैरहका सर्वथा वियोग किस तरह सम्भवित हो सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है ।. श्रात्मा जो जो गुण हैं वे दो प्रकारके हैं एक तो प्रात्मामें स्वभावसे ही रहनेवाले और दूसरे वाह्यनिमित्तके कारण आत्मामें उत्पन्न होनेवाले । जो ज्ञान गुण है वह आत्मामे स्वभावसे ही रहा हैं वे आत्मामें बाह्य निमित्तके कारण आये हुये हैं । जो गुण स्वाभाविक रहे हुये हैं उनके सम्बन्धमें पूर्वोक्त न्यूनताका नियम प्रचलित नहीं होता । किन्तु जो गुण वाह्य निमित्तके कारण आये हुये हैं उन्हें लिये कही यह नियम प्रचलित हो सकता हो । क्यों.. कि जो आत्मा नैसर्गिक गुण रहे हुये हैं। वे स्वभावरुप होनेके कारण कदापि नष्ट नहीं हो सकते । परन्तु जो गुण निमित्त के कारण हुए होते हैं वे समस्त निमित्तके खिलके जानेपर खिसक जानेवाले होनेसे उनके लिये उपरोक्त न्यूनतावाला नियम प्रचलित हो सकता है। अर्थात् आत्मा परिणामी नित्य है अतः चाहे जैसा ज्ञानावरणीय का उदय हुआ हो तथापि आत्माके स्वभावभूत ज्ञानका नाश नहीं हो सकता और जो राग द्वेषादि लोभ वगैरह के कारणोंसे आत्मामें आ घुसे हों वे समस्त लोभ वगैरहका नाश होनेपर एक क्षणभर भी नहीं टिक सकते। जो भाव जिस निमित्त के लिये आये हो वे भाव अपने उस सहचर निमित्तके न रहनेपर कदापि नहीं रह सकते। यह नियम सर्वत्र प्रचलित हो सकता है और यहाँपर रागद्वेषको भी यही नियम लागू पडता है। इससे शरीरके समान आत्माको राग और द्वेषका भी सर्वथा वियोग हो सकता है । जो पहले बतलाया है कि जो अनादिका होता है उसका कदापि नाश नहीं हो सकता यह नियम भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि प्राम्भव' नामक प्रभाव अनादिका होनेपर भी. नाश पाता है यह बात सव ही प्रामाणिक स्वीकारते हैं। तया . सुर्ण और मिट्टी इन दोनोंका सम्बन्ध अनादि कालका होनेपर भी क्षार और अग्नि तापके प्रयोगसे उसका . नाश हो
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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