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________________ निर्जरा और मोक्ष. १२७ है उसका नाश नहीं हो सकता वैसे ही प्रात्माके साथ राग और द्वेषका सवन्ध भी अनादि है अतः सर्वथा उसका वियोग कैसा होगा ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है। जिन जिन भावों में थोड़ी भी न्यूनता हो सकती हो उन भावोंका किसी दिन सर्वथा अभाव भी होना चाहिये । जैसे कि जाडेकी ठंडीमें हमारे रोगटे खड़े हो जाते हैं और जब वह ठंडी मिटकर धूप निकल आती है तव हमारे रोंगटे बैठते चले जाते है और विशेष ध्प होनेपर हमारे उन रोगटे मेंसे एक रोगटा खड़ा नहीं रहता, अर्थात् रोमांच में जिस प्रकार न्यूनता होते हुये उसका सर्वथा अभाव हो जाता है वैसेही यहाँपर राग, द्वेष वगैरहकी न्यूनता होते हुये उसकाभी सर्वथा अभाव होना सुशक्य है। यद्यपि प्राणीमात्रको रागादिका संबंध अनादिकालसे लगा हुआ है तथापि कितने एक मनुष्योंको राग करनेके स्थानों (स्त्री-कुटुंव वगैरह ) का यथार्थ स्वरूप मालूम हुये बाद उसपरसे क्रमश:रागले विरुद्ध भावना करनसे उनका अनुराग कम होता चला जाता है, यह वात सब मनुष्योको सुविदित होनेके . कारण विवाद रहित है अतएव यह पूर्वोक्त अनुमानको पुष्ट करती है, अर्थात् राग द्वेष वगैरहमें भी न्यूनता होनेका अनुभव होनसे किसी समय समयादिकी आवश्यक सामग्रीका संयोग होनेपर और शुभ भावनाका वल जोर पकड़नेपर राग द्वेष आदिका भी सर्वथा क्षय होना कुछ अनुचित मालूम नहीं देता । इस लिये जैसे जीवको शरीरका सर्वथा वियोग हो सकता है वैसे ही रागद्वेषादिका भी सर्वथा वियोग हो सकता है और इस वातमें किसी प्रकारका दूषण नहीं आ सकता। इस सम्बन्धले यदि कोई यों कहे कि जैसे ज्ञानावरणीय कर्मका उदय होनेपर ज्ञानमें न्यूनता होनेका अनुभव होता है और उसकर्मका अत्यन्त उदय होनेपर कुछ शानका सर्वथा नाश होता हुआ मालूम नहीं देता, इससे जिस भावकी कुछ थोडीसी भी न्यूनता हो सकती हो उस भावका किसी समय सर्वथा अनस्तित्वभी होना चाहिये इस तरहका नियम सुरक्षित नहीं रहता और ऐसा
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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