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________________ १२४ जैन दर्शन प्रकारका है। एक सर्वसम्बर- सर्वथा-सम्बर और दूसरा देश सम्ब थोड़ा थोड़ा लम्बर। जिस समय ज्ञानी पुरुष छोटी या बड़ी समस्त प्रवृत्तियाँको देख कर सर्वथा प्रक्रिय-क्रिया रहित हो जाता है उस समय वह सर्वथा सम्बर ( सर्व प्रकारसे सम्बर-सर्व सम्बर) में होता है । और जबसे मनुष्य मात्र चारित्र सुधारकी तरफ मुक्ता है तबसे वह थोड़ा थोड़ा सम्बर ( देश सम्बर) किये जाता है । वन्ध तत्वका वर्णन इस प्रकार है जिस प्रकार दूध और पानी दोनों इकट्ठे हुये बाद जैसा उन दोनोंका परस्पर सम्बन्ध होता है वैसा ही जीवके प्रदेश और कर्मके परमाणुओं में जो सम्बन्ध होता है उसे बन्ध कहते हैं । अथवा जिसके द्वारा आत्मा परतंत्रताको प्राप्त हो ऐसे कर्मके ( पुगनके ) परिणामको बन्ध कहते हैं। गोष्टामाहिल नामक कोई विद्वान् ऐसा मानते हैं कि जैसा शरीर और उसके ऊपर रहे हुये कपड़ोंका सम्ब न्ध है, सर्प और उसके ऊपर रही हुई कांचलीका सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध आत्मा और उसके ऊपरके कर्मोका है। परन्तु जैन दर्शन इल प्रकारका सम्बन्ध नहीं मानता। जैन दर्शन कहता है कि इकडे हुये दूध और पानीका जैसा सम्बन्ध होता है या मिले हुये अग्नि और लोहेका जैसा सम्वन्ध होता है वैसा ही सम्बन्ध जीव और कर्मके परमाणुओं में है । यदि यहाँपर यह कहा जाय कि जीव श्रमूर्त है उसका किसी भी तरहका प्राकार नहीं, उसे हाथ, पैर, भी नहीं हैं, तो फिर किस तरह कर्मके परमाणुओं को ग्रहण करता है ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-जीव और कर्ममें अनादिकालका सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध भी कुछ ऐसा वैसा ही नहीं किन्तु मिले हुये दूध और पानीके समान है । अतः इस प्रकारके सम्बन्धले बने हुये आत्माको हम सूर्त नहीं मानते किन्तु सूर्त हो याने श्राकारवान ही मानते हैं । तथा कर्मके परमाणु कुछ हाथसे नहीं पकड़े जाते, वे तो मात्र वृत्तियों याने विचारों द्वारा ही खीचें जाते हैं । जिस तरह कोई मनुष्य शरीरपर तेलं नसलवा कर वस्त्ररहित बैठा हो उस वक्त हाथ पैर हिलाये बिना ही उसके शरीरपर चारों ओरसे उड़ती हुई रज आ चिपटती है वैसे ही रागद्वेप
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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