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________________ सस्वर और बन्ध. १२३ वन्धमें भी पहले कौन और पीछे कौन इस वातका अन्त नहीं आ सकता । इनका पारस्परिक प्रवाह निरन्तर चला ही करता है। परन्तु इतनी बात विशेष है कि वर्तमानकालके आश्रयका हेतु पूर्वकालीन कर्मवन्ध है और होनेवाले फर्मवन्धका हेतु वर्तमान कालका आश्रव है। ये दोनों प्रवाह रीतिले अनादिकालीन होनेसे इनके क्रम निश्चित करनेका मत्थापच्ची करना सर्वथा निकम्मा और व्यर्थ है। इन दोनोंका प्रवाह भी किसी प्रकारकी बाधासे रहित है । पूर्वकालके बन्धकी अपेक्षा आश्रव कार्यरूप है और यही कार्यरूप आश्रव होनेवाले कर्मवन्धकी अपेक्षा कारणरूप है । इसी दृष्टिसे यहाँपर प्राश्रवको कर्मवन्धका कारण फहा है । अतः आश्रव और वन्धके इसमें किसी प्रकारका दूषण नहीं पा सकता। मुख्यतया यह आश्रय दो प्रकारका है। पुण्यका हेतु और अपुण्यका हेतु । तरतमताके कारण इसके छोटे छोटे भेद तो बहुत ही है । तन, मन, वचनकी शुभ या अशुभ प्रवृत्तिकी अर्थात् आश्रवकी विद्यमानता मनुष्य स्वयं अपने अनुभवले ही जान सकता है और उसके द्वारा ही तथा अनुमानसे भी उसकी विद्यमानताकी कल्पना कर सकता है। आश्रवकी विद्यमानताके लिये शास्त्र भी साक्षी देते हैं, अतः पाशवतत्वके अस्तित्वमें किसी भी प्रकारका दोष नहीं आता। सम्बर और बन्ध अब सम्बर और बन्धतत्वका विवरण इस प्रकार कहते हैंप्राश्रवके विरोधको जैनशास्त्र में सम्बर कहा है। जीव और कर्म इन दोनोंका दूध और पानीके समान जो परस्पर सम्बन्ध है उसे वन्ध कहते हैं। सम्यक् दर्शनके द्वारा मिथ्यात्व, त्यागके द्वारा अविरति, प्रमाद, क्षमादि गुणोंके द्वारा कषाय तथा मन, तन और वचनके दमन द्वारा और पवित्र विचारोके द्वारा मन, तन, और वचनकी प्रवृत्तियोंका जो निरोध किया जाता है उसे सस्वर कहते हैं। यथार्थ सम्बर तो प्रात्मांमें कर्मग्रहणके हेतुका अभाव है। वह सम्बर दो
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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