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________________ ११८ जैन दर्शन सुख या दुःख देती है वही वस्तु दूसरे मनुष्यको कम सुख या दुःख . देती है और जो एक वस्तु किसी एक मनुष्यको सुखका कारण बनती है वही वस्तु दूसरे मनुष्यको दुःखका कारण बनती है। खीर खानेवाला एक मनुष्य आनन्द भोगता है दूसरा मनुष्य उसी खीरको खाकर दुःख भोगता है-रोगी वनता है। यदि आपके कथनानुसार स्थूल वस्तुयें स्वयं ही सुख और दुःखका कारण बनती हो तो फिर एक ही वस्तु एकको सुख और दूसरेको दुःखका कारणं किस तरह हो सके ? अतः इस प्रकारके सुख और दुःखके अनुभव होनेका कारण कोई अन्य ही होना चाहिये-जो परोक्ष है और नजरसे दीखते हुये इनस्यूल पदार्थोके जैसास्थूल नहीं है। यदि इस प्रकारके याने एक ही वस्तुसे उत्पन्न होनेवाले सुख और दुःखके अनुभवका कोई भी कारण ही न हो तो या तो पेसा अनुभव ही न होना चाहिये अथवा ऐसा अनुभव हमेशह होना चाहिये। क्योंकि जिस वस्तु या प्रवृत्तिका कुछ भी कारण न हो वह या तो होनी ही न चाहिये और या हमेशह होनी चाहिये ऐसा अकारण वादका नियम है । परन्तु यहाँ तो ऐसा होता हुआ मालूम नहीं देता। अतः सुखादिकके अनुभवके कारणको अवश्य ही मानना पड़ेगा और जो वह कारणरूप ठहरेगा वह पुण्य और पापके सिवाय अन्य कोई न हो सकेगा। 'शास्त्र में कहा है कि "सामग्री. की समानता होनेपर भी जो उसके फलमें विशेषता मालूम होती है अर्थात् जो सामग्री किसीको अधिक और किसीको कम सुख दुःख पैदा करती है अथवा जो एक सामग्री एकको सुखी-और · . 'वही सामग्री दूसरेको दुःखी करती है, यह सब किसी खास कारण .. सिवाय नहीं हो सकता। किसी कारण विना ऊपर बतलाया हुमा विचित्र अनुभव नहीं हो सकता, हे गौतम ! जैसे विना कारण घट नहीं बन सकता वैसे ही किसी कारण विना ऊपर बतलाया हुआ विचित्र अनुभव नहीं हो सकता । अतः इस अनुभवका कुछ खास कारण होना चाहिये और वह" जो कारण है उसे ही कर्म । १ विशेषावश्यक भाष्यके-गणधर. वादकी गाथा १-६-१-३ () . ६८९ देखिये।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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