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________________ पाप और आश्रव ११७ स्वर्ग और नरक तो होंगे ही कैसे ? " उनके इस कथन की असत्यता इस प्रकार सावित होती है-यदि पुण्य और पाप ये दोनों आकाश पुष्पके समान ही हो और किसी खास तत्वरूपसे न हों तो संसारमें जो सुख और दुःख हुआ करते हैं उनकी उत्पत्ति किस तरह हो ? आपकी मान्यताके अनुसार तो सुख और दुःख कदापि किसीको न होना चाहिये, क्योंकिं कारणके विना कोई कार्य नहीं हो सकता । परन्तु आपका यह कथन हमें सर्वथा विरुद्ध मालूम देता है । क्योंकि संसारका प्रत्येक प्राणी क्षणक्षणमें सुख और दुःखका अनुभव किया करता है। यदि आप गहरा विचार करेंगे तो मालूम होगा कि मनुष्य समानहक्क होनेपर भी एक मनुष्य शेठाई और एक गुलामी भोगता है । एक मनुष्य लाखौका पालन पोषण करता है, एक अपना पेट भी नहीं भर सकता और कितने एक देवताओंके समान निरन्तर मौज मजा किया करते हैं एवं कितने एक नारकोंके समान दारुण दुःख भोगते हुये त्राहि २ होकर पुकार कर रहे हैं। इस प्रकार सुख और दुःखका अनुभव प्रत्येक प्राणीको होनेसे उसके कारणरूप पुण्य और पाप तत्वोंका स्वीकार करना आवश्यक है और इन दोनों तत्वोंका स्वीकार किये वाद इनके फलरूप स्वर्ग और नरकको भी मानना चाहिये । जैसे विना बीज अंकुर हो नहीं सकता वैसे ही विना पुराय सुख और विना पाप दुःख नहीं हो सकता । अतः इन दोनों तत्वोंको अवश्य मानना चाहिये। अब कदाचित् यदि कोई यों कहें कि जैसे घड़ा, चर्खा, और साड़ी वगैरह श्राकारवाली वस्तुयें श्रात्मामें होते हुये आकार रहित ज्ञानका कारण बनती हैं वैसे ही स्त्री, चन्दन और माला वगैरह श्रेष्ठ श्रेष्ठ स्थूल वस्तुओं को अमूर्त सुखका कारण मानना चाहिये और विष, कांटा तथा सर्प वगैरह खराब २ स्थूल वस्तुओंको सूर्त दुःखका कारण मानना चाहिये, परन्तु इन प्रत्यक्षरूप वस्तुओको छोड़कर परोक्षरूप पुण्य और पापको सुख तथा दुःखका कारण कल्पित करना यह किसी भी तरह युक्तियुक्त मालूम नहीं देता । यह पूर्वोक्त कथन भी असत्य ही है और इसकी सत्यता इस प्रकार साबित होती है-जो एक वस्तु एक मनुष्यको विशेष
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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