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________________ जीववाद ८५ हैं, फेंकी जाती हैं, भोगी जाती हैं, सूँघी जाती हैं, चाखी जाती हैं और स्पर्श की जाती हैं । अर्थात् पूर्वोक्त रीति से पृथ्वी वगैरह भी जीववाले हैं। संसार में जो कुछ पुग्दल द्रव्य हैं वे सब ही किसी न किसी जीवके शरीर हैं अतः पृथ्वीको भी शरीर कहने में किसी प्रकारका वाध नहीं आता । पृथ्वी में रहा हुआ छेदनपन वगैरह चर्म दृष्टिगोचर होने से उनका निपेध नहीं किया जा सकता, अतः इन्हीके द्वारा उसकी सचेतना सावित हो सकती है । जिस पृथ्वीको किसी प्रकारका प्रघात नहीं लगा वह जीववाली है और जिस पृथ्वीको शस्त्र वगैरहका आघात लगा हुआ है वह जीव रहित है । जिस प्रकार हमारे हाथ पैर वगैरहका आघात सचेतन है वैसे ही शस्त्रद्वारा न हनी हुई संघातरूप पृथ्वी वगैरह भी सचेतन हैं और जिस तरह शस्त्रद्वारा हनन किये शरीरसे जुदे पड़े हुए हमारे हाथ पैर अचेतन हैं वैसे ही शस्त्रसे हनन की हुई पृथ्वी वगैरह भी अचेतन हैं । अर्थात् किसी वक्त कोई पृथ्वी सचेतन है और किसी वक्त कोई पृथ्वी अचेतन होती है। इस प्रकार शस्त्रसे न हनन की हुई पृथ्वीको एवं पानी वगैरहको सचेतन सावित करनेकी युक्ति है । यदि यों कहा जाय कि जैसे मूत्र सचेतन नहीं वैसे ही पानी सचेतन नहीं। यह कथन सत्य है । वास्तविक रीति से देखा जाय तो जैसे कलल अवस्थामें ताजा उत्पन्न हुआ हाथीका शरीर प्रवाही है और चेतनवाला है वैसे ही पानी भी चेतनवाला है । अथवा जैसे अण्डे में रहा हुवा पक्षीका जलमय शरीर कि जिसे अभी तक कोई चंचू वगैरह भाग प्रकट नहीं हुआ है वह चेतनवाला होता है वैसे ही पानीको भी सचेतन समझना चाहिये । इस विषयको विशेषतः स्पष्ट करनेवाले अनुमान इस प्रकार हैं । १ जिस तरह हाथीके शरीरका मूल कारण वह प्रवाही कलल सचेतन है, वैसे ही शस्त्रसे आघात न पाया हुआ पानी भी सचेतन है । मूत्र तो शस्त्रसे आघात पाया हुआ होनेके कारण सचेतन हो नहीं सकता । २ जिस प्रकार अण्डेमें रहा हुआ रस सचेतन है उसी प्रकार पानी भी सचेतन है । ३ पानीरूप होनेके
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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