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________________ ( २६ ) नुग्रहोपघाताभावात् । यथाकाशममूर्त दिगादीनाममूर्तानां नानुग्राहकमुपघातक च, तथैवामूर्त कर्मामूर्तेरात्मनोरनुग्रहोपघातयोः हेतुर्न स्यात् । ननु पुण्यापापाख्यमहप्ट धर्माधर्मनाम्ना प्रोच्यमानं कर्म प्रात्मगुरण एवेति चेन्न, अदृष्टस्यात्मगुणत्वासंभवात् । यदि तत् आत्मगुरण. स्यात्तदा न कदापि तस्य ससारहेतुत्व भवेत् । न च स्वगुण एव कस्यचिद् बधहेतुईष्ट श्रुतो वा । अन्यथा न कदापि तस्य मुक्तिः सभवेत् । अत: कर्मण पौद्गलिकत्वमेवाङ्गीकार्य । तथैव तमश्छाया तपोद्योतादीनामपि पौद्गलिकत्वमेवेद्रियग्राह्यत्वात् । का उसके द्वारा उपकार और अपकार नही हो सकता। जिस तरह अमूर्त आकाश अमूर्त दिशा वगैरह का उपकारक और अनुपकारक नहीं होता, उसी तरह अमूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के भला बुरा करने का कारण नहीं हो सकता। शंका-पुण्य पाप नाम से कहा जाने वाला महष्ट, धर्म अधर्म नाम से कहा जाने वाला कर्म आत्मा का ही गुण है-ऐसा नहीं हो सकता; अदृष्ट प्रात्मा का गुरण नहीं हो सकता । यदि अदृष्ट प्रात्मा का गुरण हो जाय तो वह कभी ससार का कारण न हो; क्योकि अपना गुण ही किसी के बध का कारण न तो देखा ही गया और न सुना ही गया । इसके विपरीत जीव की कभी मुक्ति नही हो सकेगी। इसलिए कर्म को पौद्गलिक मानना ही ठीक है। इसी प्रकार अन्धकार, छाया, धूप, चादनी वगैरह भी पोद्गलिक ही हैं, क्योकि वे इन्द्रियो से ग्रहण किए जाते हैं।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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