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________________ जीयः, स एवात्मशब्देनाप्युच्यते । जीवोऽयमुपयोगमयोऽभूतिः, कर्ता, स्वदेहपरिमारण, भोक्ता, ऊईवगतिस्वभावश्च । तस्य द्वौ भेदी, संसारस्थो मुक्तश्चेति । तथा चोक्त द्रव्यसग्रहे:"जीवो उव प्रोगमनो, अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारस्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।। - जीवसिद्धिः चार्वाक प्रति, ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणं नैयायिक प्रति, अमूर्त जीवत्वं भट्टचार्वाकद्वयं प्रति, कर्मकर्तृत्वस्थापन है। यह व्यवहार हष्टि से जीवका लक्षण है। निश्चय नय से स्वचेतनात्मक स्वभाव से जो जीता है वह जीव है-वही आत्मा शब्द से भी कहा जाता है। यह जीच उपयोगमयी, प्रमूत्तिक, का, अपने शरीर के परिमाण वाला, भोक्ता और ऊर्ध्व-गमन स्वभाव वाला है । उस जीव के दो भेद हैं-एक मंसारी और दूसरा मुक्त । यही द्रव्य संग्रह नामक ग्रंथ में कहा है___ जीव जीने वाला है, उपयोगमय है, अमूत्तिक है, कर्ता हैअपने शरीर के परिमारण वाला है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है, स्वभाव से ऊध्वं गमन करने वाला है। इन नो अधिकारों द्वारा जीव तत्त्व का वर्णन किया गया है। यहा जीव इस पद के द्वारा चार्वाक मत का परिहार किया गया है; क्योकि चार्वाक जीव के अस्तित्व को नहीं मानता। ज्ञान और दर्शन रूप उपयोग लक्षण पद से नैयायिक-वैशेषिक मत का परिहार किया गया है। क्योंकि वे उपयोग को जीव कर
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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