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________________ - - त्रिभिः सम्यक्त्वविशिष्ट. प्राप्यते । तथाचोक्त तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः १११" ____सम्यग्दर्शन हि अात्मेतरविवेकरूप । आत्मेतरविवेकस्तु तत्त्वार्थश्रद्धानात् संमुपलभ्यते। तत्त्वार्थाश्च जीवाजीवास्रव बंध. संवर-निर्जरा-मोक्षाख्याः सप्त । जीवश्चेतनालक्षणोऽजीवस्तद्विपरीतः । पुण्यपापागमद्वाररूप प्रास्रव. । प्रात्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको वधः । प्रास्रवनिरोधलक्षणः संवरः । कमेकदेशमंक्षयात्मिका निरा। कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षलक्षणो मोक्ष । जीवतत्त्वविवेचनम् जीवति प्रारिणति चतुभिरिद्रियवलायु.श्वासोच्छ्वासाख्यः प्राणर्व्यवहारेण, निश्चयनयेन तु स्वचेतनात्मकस्वभावेन, स धिगम मोक्षशास्त्र नामक ग्रंथ में कहा गया है कि-सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ही -मोक्ष का उपाय है। ---- __ सम्यग्दर्शन स्व और पर के भेदज्ञान-स्वरूप है और वह प्रात्मेतर-विवेक तत्त्वार्थ श्रद्धान से प्राप्त होता है। तत्त्वार्थ सात हैं-जीव, अजीव, पाश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव चेतना लक्षण वाला है, अजीव इससे विपरीत अचेतन स्वरूप है । प्रास्रव-पुण्य और पाप के आने का द्वार स्वरूप है। बंध-पारमा और कर्म के,परस्पर प्रदेशों में प्रवेशास्मक रूप है। संवर का लक्षण कर्मों के आगमन को रोक देना है। कर्मों के एक देश क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। समस्त कर्मों से छूट जाना मोक्ष का लक्षण है। जीव तत्त्व का वर्णन १ इन्द्रिय, २. वल, ३ आयु तथा ४ श्वासोछ्वास-इन चार प्राणों द्वारा जो जीता है, प्राण धारण करता है वह जीव
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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