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________________ ( १:१ ) तोभयस्मिन्नपीति चेन्न । यतो प्रवक्तव्यत्वं महापितोभयमेव न किन्तु सहापितयोरस्तित्वनास्तित्वयोः सर्वथा वक्त मशक्यत्वरूप धर्मान्तरमेवः। तथा च मत्त्वादिना सहितमवक्तव्यत्वादिक धर्मान्तर प्रनीतिसिद्ध । । । ननु-अवक्तव्यत्व यदि धर्मान्तरं, तहि वक्तव्यत्वमपि धर्मान्तर स्यात् तथा चाष्टमस्य वक्तव्यत्वधर्मस्य सद्भावेन तेन सहा ष्टभगी स्यान्न सप्तभंगीति चेन्न___ सामान्येन वक्तव्यत्वस्यातिरिक्तस्याभावात् । सत्त्वादिरूपेणवक्तव्यत्व तु प्रथमभगादावेवान्तर्भूतम् । यदि वक्तव्यत्वं नाम कश्चनातिरिक्तो धर्मः स्वीक्रियेत तदा वक्तव्यत्वाऽवक्तव्यत्वाभ्या विधिप्रतिषेधकल्पनाविपयाभ्यां सत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामिव सप्तभग्यन्तरमेव प्राप्नोतीति न सत्त्वाऽसत्त्वादि-सप्तविधधर्मव्याघातप्रसङ्ग.।। समाधान-ऐसा कहना ठीक नही । प्रवक्तव्यत्व के साथ योजित अस्ति नास्तित्व उभय रूप ही नहीं है। किन्तु सह अपित सत्ता तथा असत्ता इन दोनो धर्मों का सर्वथा कथन अशक्यत्व रूप धर्मान्तर है क्योकि एक साथ दोनो धर्मों का कथन कभी संभव नही। इस प्रकार सत्त्वादि के साथ प्रवक्तव्यत्व वगैरह अनुभव से धर्मान्तर सिद्ध हो जाते है। शंका~यदि प्रवक्तव्यत्व भर्मान्तर है तो वक्तव्यत्व. भी धर्मान्तर होगा और ऐसी सूरत में आठवां वक्तव्यत्व धर्म के सद्भाव होते हुए अष्ट भंगी सिद्ध होगी न कि सप्त भगी। . समाधान-ऐसा नही हो सकता । सामान्य रूप से वक्तव्यत्व धर्म अलग नही है और सत्त्व रूप में वक्तव्यत्व प्रथम भंगादि में ही अन्तभूत है और वक्तव्यत्व को अलग धर्म भी मानो तो सत्व और असत्व के समान विधि प्रतिषेध को विषय करने वाले वक्तव्यत्व और अवक्तव्यत्व धर्मों से अन्य सप्त भगी वन जायगी। इस तरह सत्त्व असत्व आदि सात प्रकार • के धर्म का व्याघात नहीं होगा।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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