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________________ (११० ) त्वावच्छिन्नसत्त्वद्वयस्यासभवात् । मृण्मयत्वाद्यवच्छिन्नसत्त्वान्तरस्य संभवेऽपि दारुमयत्वाद्यवच्छिन्नस्यापरस्यासत्त्वस्यापि संभबादपरधर्मसप्तकसिद्ध सप्तभग्यन्तरस्यैव संभवात् । एतेन द्वितीयतृतीयधर्मयो. क्रमाक्रमापितयोर्धन्तिरत्वमपि निरस्तम् । एकरूपावच्छिन्ननास्तित्वद्वयासभवात् । नन्वेव प्रथमचतुर्थयोद्वितीयचतुर्थयोस्तृतीयचतुर्थयोश्च सहितयो कथं धर्मान्तरत्वम् । अवक्तव्यत्व हि सहापितास्तित्वनास्तित्वोभयं, तथा च यथा क्रमापितास्तित्वनास्तित्वोभयस्मिन्नस्तित्वस्य योजनं न सभवति अस्तित्वद्वयाभावाद तथा सहार्पिवाक्य में घटत्व धर्म सहित घट के दो सत्ता का होना असंभव है। मिट्टी युक्त घट के अन्य सत्ता का सभव होने पर भी काष्ठ आदि रचित अन्य घट की असत्ता का भी संभव होने से उसी प्रकार के अन्य सात धर्म सिद्ध हो जायगे। इस तरह अन्य सप्त भंगी का सिद्ध होना संभव है न कि सप्त धर्मो से भिन्न अलग धर्म । इस प्रकार क्रम तथा अक्रम से अर्पित द्वितीय तृतीय धर्मो की योजना से अन्य धर्म सिद्धि का भी खंडन होगया। क्योकि एक पदार्थ विषयक दो सत्य के समान एक रूपावच्छिन्न एक पदार्थ सम्बन्धी दो नास्तित्व का होना असंभव है। शका-ऐमा मानने पर तो प्रथम, चतुर्थ, द्वितीय, चतुर्थ तथा तृतीय चतुर्थ धर्म मिलकर धर्मान्तर कैसे सिद्ध होगे। क्योंकि प्रवक्तव्य भग के साथ, पहला दूसरा तथा तीसरा भग मिलाने से ही सात भंग बनते है-अन्यथा चार ही रह जाते है। जैसे क्रम से अपित अस्तित्व नास्तित्व रूप मे दूसरे अस्तित्व का कोई प्रयोजन नही है; क्योंकि एक पदार्थ विषयक दो सत्त्व का पूर्वोक्त रीति के अनुसार असंभव है । ऐसे ही साथ अर्पित उभय रूप में नास्तित्व भी नहीं रह सकता।
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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