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________________ प्राप्तस्तु यथार्थवक्ता । यो यथाऽवञ्चकः स तत्राऽऽप्तः । इदं व व्यवहारापेक्षयाऽऽप्तलक्षणं, पागमभाषया तु प्राप्तः प्रत्यक्षमितसकलार्थत्वे सति परमहितोपदेशको निरुच्यते । परमहितं तु निःश्रेयस तदुपदेश एव अर्हतः प्राधान्येन प्रवृत्तेः । तस्यैव केवलज्ञानप्रमितसकलार्थत्वे सति परमहितोपदेशकत्वादाप्तत्वं । यद्यपि सिद्धपरमेष्ठी अपि सकलपदार्थप्रत्यक्षदृष्टा तथापि न स आप्तस्तस्य परमहितोपदेशकत्वाभावात, तदभावश्च शरीराद्यभावात् । ननु अर्थस्य कोऽर्थ. यज्जानमागमः प्रोच्यते । अर्थोडनेकांत' है वह आगम प्रमाण है। प्राप्त प्रामाणिक वक्ता को कहते हैं। जो जिस विषय में अविसंवादक है वह उस विषय में प्राप्त है। आप्त का यह लक्षण व्यवहार की अपेक्षा से है। प्रागमिक भाषा मे तो प्रत्यक्ष के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान हो जाने पर अर्थात् सर्वज्ञ होते हुए जो परम हित अर्थात् आत्म-कल्याण का उपदेष्टा होता है उसे प्राप्त कहते हैं । परमहित मोक्ष को कहते हैं और ऐसे उपदेश में अर्हन्तों को ही प्रधानता से प्रवृत्ति होती है। उस अर्हन्त के ही केवल-ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष होने पर परम हितोपदेशक होने से प्राप्त-पना है। यद्यपि सिद्ध परमेष्ठी भी सम्पूर्ण पदार्थो के ज्ञाता है फिर भी वे प्राप्त नहीं, क्योकि वे हितोपदेशी नही और उसका कारण शरीर वगैरह का न होना है। ___ यदि यह कहा जाय कि अर्थ शब्द का क्या अर्थ है जिसके कि ज्ञान को आगम कहा जाता है तो वह अर्थ अर्थात् पदार्थ अनेकान्तात्मक होता है । अनुवृत्त और व्यावृत्त प्रत्यय के विषय
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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