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________________ ( ८५ ) विपक्षेऽप्यविरुद्धवत्तिरनैकान्तिकः । स द्विविधिः, निश्चितवृत्ति शङ्कितवृत्तिश्च । तत्र प्रथम भनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवत् । माकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयादस्य निश्चितवृत्त्यनकांतिकत्व । द्वितीयस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात्, सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधादस्यशङ्कितवृत्त्यनैकान्तिकत्वं । ज्ञानोत्कर्षे वचनानामपकर्षादर्णनात् । . सिद्ध प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतरकिञ्चित्करः । सिद्धः श्रावण' शब्द. शव्दत्वात । किचिदकरणादस्याकिंचित्करत्वं । यथाऽनुष्णेऽग्निद्रव्यत्वादित्यादी किञ्चित्कमशक्यत्वादकिचिकरत्वमस्ति। आगमप्रमाणस्वरूप प्राप्तवाक्यादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । विपक्ष मे भी पाया जाने वाला अनैकान्तिक हेत्वाभास है। • वह दो प्रकार का है। पहला निश्चितवृत्ति और दूसरा शक्ति वृत्ति । वहां पहला-जैसे शब्द अनित्य है प्रमेय होने से, घट की तरह । यहा प्रमेयत्व हेतु का विपक्षभूत नित्य प्रकाश मे पाया जाना निश्चित है, अतः यह निश्चित्तवृत्ति अकान्तिक है। दूसरा-सर्वज्ञ नही है क्योकि वह वक्ता है । यहा सर्वज्ञत्त्व के साथ चक्तृत्व का कोई विरोध न होने से वक्तृत्व हेतु शकित-वृत्ति अनेकान्तिक है । क्योकि ज्ञान का उत्कर्ष होने पर वचनो का अपकर्ष नही देखा जाता। सिद्ध साध्य मे और प्रत्यक्षादि बाधित साध्य में प्रयुक्त होने वाला हेतु अकिञ्चित्कर है। जैसे शब्द श्रवण इन्द्रिय जन्य है शब्द होने से । यहा हेतु के कुछ भी सिद्ध नहीं करने से अकिञ्चित्कर-पना है । जैसे अग्नि ठण्डी है द्रव्य होने से । यहा साध्य के प्रत्यक्ष बाधित होने से हेतु को अकिंचित्कर-पना है। ___ आगम प्रमाण का समर्थन प्राप्त के शब्द को सुनकर याहस्त सकेत मादि को देखकर या ग्रन्थ को लिपि आदि के पढने से जो पदार्थों का ज्ञान होता
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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