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________________ (६० ) जन्यं तद्धिन्नकार्यत्वात् अप्रामाण्यवत् । अथवा ज्ञानप्रामाण्ये भिन्नकारगजन्ये भिन्नकार्यत्वात् घटवस्त्रवत् । ततः स्थित प्रामाण्यं परापेक्षमेवोत्पत्तौ। कथं तस्य ज्ञप्तिरितिचेत् अभ्यस्तविषये स्वतोऽनभ्यस्ते तु परत । परिचितस्वग्रामतडागजलादिरभ्यस्तः । तदितरोऽनभ्यस्तः: । अभ्यस्तविषये प्रामाण्यनिश्चयो न परापेक्षः, न हि तत्र प्रेक्षावता निर्णयाकांक्षणं । तत्र हि जलज्ञानानन्तरं स्वत एव प्रवृत्तिप्राप्तिप्रतीतेः। अनभ्यस्तविषये तु प्रामाण्यनिश्चयः परापेक्ष एव । तस्य हि तकविषयात् संवादकात् ज्ञानान्तराद्वा, अर्थक्रियानिर्भासाद्वा, - - - कार्य होने से अप्रामाण्य की तरह । अथवा ज्ञान और भिन्न-भिन्न कारणों से पैदा होने वाले हैं भिन्न-भिन्न कार्य होने से, घर और वस्त्र की तरह । इसलिए सिद्ध हुआ कि प्रामाण्य उत्पत्ति में पर की अपेक्षा रखता ही है अर्थात् प्रामाण्य की उत्पत्ति पर से ही होती है। प्रामाण्य की ज्ञप्ति (जानना) कैसे होती है ? ऐसा पूछने पर उत्तर है कि ज्ञप्ति अभ्यास दशा मे स्वत. और अनभ्यास दशा में ज्ञानान्तर से यानी परत. हुआ करती है। अपने गाव के तालाब के जल का परिचय होने से वह अभ्यस्त कहलाता है किन्तु अपरिचित जल अनभ्यस्त होता है । अभ्यस्त विषय में प्रामाण्य का निश्चय दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता-निश्चय से वहा देखने वालो के निर्णय की अपेक्षा नहीं होती। वहा तो जलज्ञान के बाद अपने आप ही प्रवृति, प्राप्ति और प्रतीति हो जाती है। लेकिन अनभ्यस्त पदार्थ मे प्रामाण्य का निश्चय परत ही होता है। निश्चय पूर्वक जो भी अपरिचित पदार्थ है उस पदार्थ सम्बन्धी तर्क वितर्क से, अर्थ त्रिया के प्रतिभासित होने से और
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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