SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५६ ) तद्विशेपस्य । प्रमारणाप्रमाणरूपयो तद्विशेषयोः सम्यङ मिथ्याज्ञानयोः भिन्नकारणप्रभवत्वात् । ज्ञानसामान्यस्य कारणानि तु प्रत्यक्षस्येद्रियादीनि, अनुमानस्य लिङ्गादि, शाब्दस्य शब्दादि । प्रमाणात्मकप्रत्यक्षस्य तु न केवल मिन्द्रियारिण; कितु तत्स्थाः नर्मल्यादयो गुणा । तथैव प्रमाणभूतस्यानुमानस्य न परं लिङ्ग, कितु लिङ्गस्याविनाभावः । एवं प्रमाणात्मकशाब्दज्ञानस्य शब्द एव केवलोन कारणमपितु प्राप्तोक्तत्वरूपो गुरण । तथैव मिथ्याज्ञानरूपस्याप्रामाण्यस्य हेतवो दोषाः। तथा च यथाऽप्रामाण्य परत उत्पद्यते तथा प्रामाण्यमपि । न खलु पटसामान्यसामग्री रक्तपटे हेतुस्तथा न जानसामान्यसामग्री प्रमाणज्ञाने हेतु.। तथा च प्रामाण्य विज्ञानकारणातिरिक्तकारण ज्ञान अप्रमाण है, अत: दोनो की उत्पत्ति के कारण भी भिन्न हो हैं । ज्ञान सामान्य के कारण तो प्रत्यक्ष के तो इन्द्रिय वगैरह है अनुमान के लिंग वगैरह है और आगम के शब्द वगैरह है। लेकिन प्रमाण रूप प्रत्यक्ष के तो सिर्फ इन्द्रियाँ वगैरह नही, किन्तु उसमे रहने वाले निर्मलता आदि गुरण है। इसी तरह प्रमारण रूप अनुमान का दूसरा हेतु नही अपितु हेतु का अविनाभावी होना है। इसी तरह प्रमाण रूप पागम ज्ञान का केवल शब्द ही कारण नही बल्कि प्राप्त के द्वारा कहा हुया रूप गुण है । उसी प्रकार मिथ्याज्ञान रूप अप्रामाण्य का कारण दोष है। इसलिए जिस प्रकार अप्रामाण्य पर से उत्पन्न होता है उसी तरह प्रामाण्य भी । वास्तव में कपड़े की सामान्य सामग्री द्वारा लाल कपड़े का निर्माण नहीं हो सकता, वैसे ही ज्ञान सामान्य रूप सामग्री प्रमाण ज्ञान का कारण नहीं है। जैसे कि-प्रामाण्य विज्ञान रूप कारण के अलावा कारण से पैदा होता है भिन्न
SR No.010218
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
PublisherB L Nyayatirth
Publication Year1974
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy