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________________ 55] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा रहा है' — इसका अनुमान में, तथा (५) 'सोहन घर पर नही है' इसका आगम में समावेश हो जाता है ४४ । सामान्य प्रभाव का ग्रहण प्रत्यक्ष से होता है । कोई भी वस्तु केवल सदूप या केवल असद्रूप नहीं है। वस्तु मात्र सत्-असत् रूप (उभयात्मक) है । प्रत्यक्ष के द्वारा जैसे सदभाव का ज्ञान होता है, वैसे असद्भाव का भी ४५ । कारण स्पष्ट है । ये दोनों इतने धुलेमिले हैं कि किसी एक को छोड़कर दूसरे को जाना नही जा सकता । एक वस्तु के भाव से दूसरी का अभाव और एक के अभाव से दूसरी का भाव निश्चित चिह्न के मिलने या न मिलने पर निर्भर है 1 स्वस्तिक चिह्न वाली पुस्तक के लिए जैसे स्वस्तिक उपलब्धि हेतु बनता है, वैसे ही अचिन्हित पुस्तक के लिए चिन्हाभाव अनुपलब्धिरेतु बनता है, इसलिए यह अनुमान की परिधि से बाहर नहीं जाता । 'सम्भव अविनाभावी अर्थ - जिसके बिना दूसरा न हो सके, वैसे अर्थ की सत्ता ग्रहण करने से दूसरे अर्थ की सत्ता बतलाना 'सम्भव' है। इसमें निश्चित अविनाभाव है—नौर्वापर्य, साहचर्य या व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है । इसलिए यह भी > अनुमान परिवार का ही एक सदस्य है । ऐतिह्य ७ : प्रवाद - परम्परा का आदि स्थान न मिले, वह ऐतिध है । जो प्रवादपरम्परा अयथार्थ होती है, वह अप्रमाण है और जिस प्रवाद-परम्परा का आदिलोत त्रास पुरुष की वाणी मिले, वह श्रागम से अतिरिक्त नहीं है प्रातिभ : १६ -: प्रातिभ के बारे में जैनाचार्यों में दो विचार परम्पराएं मिलती हैं । वादिदेव सुरि आदि जो न्याय प्रधान रहे, उन्होंने इसका प्रत्यक्ष और अनुमान में समावेश किया और हरिभद्र सूरि, उपाध्याय यशोविजयजी आदि जो न्याय के साथ-साथ योग के क्षेत्र में भी चले, उन्होने इसे प्रत्यक्ष और श्रुत के बीच का माना । पहली परम्परा के अनुसार इन्द्रिय, हेतु और शब्द- व्यापार निरपेक्ष जड़े
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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