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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [५९ संकलन इन्द्रिय से नहीं होता, विचारने से होता है। विचार के समय उनमें से एक ही वस्तु मन के प्रत्यक्ष होती है, इसलिए यह भी प्रत्यक्ष नहीं होता। परोक्ष द्वय के संकलन में दोनों वस्तुएं सामने नहीं होती, इसलिए वह प्रत्यक्ष का स्पर्श नहीं करता। प्रत्यभिज्ञा को दूसरे शब्दो मे तुलनात्मक ज्ञान, उपमित करना या पहचानना भी कहा जा सकता है। प्रत्यभिज्ञान में दो अों का संकलन होता है। उसके तीन रूप वनते हैं(१) प्रत्यक्ष और स्मृति का संकलन : (क) यह वही निर्ग्रन्थ है। (ख) यह उसके सहश है। (ग) यह उससे विलक्षण है। (घ) यह उससे छोटा है। पहले आकार मे-निर्ग्रन्थ की वर्तमान अवस्था का अतीत की अवस्था के साथ संकलन है, इसलिए यह एकत्व प्रत्यभिज्ञा' है। दूसरे आकार मे-दृष्ट वस्तु की पूर्व दृष्ट वस्तु से तुलना है। इसलिए यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञा है। ____तीसरे आकार में तृष्ट वस्तु की पूर्व दृष्ट वस्तु से विलक्षणता है, इमलिए यह 'वैसदृश्य प्रत्यभिज्ञा' है। चौथे आकार में दृष्ट वस्तु की पूर्व दृष्ट वस्तु प्रतियोगी है, इसलिए यह 'प्रतियोगी प्रवभिशा' है। (२) दो प्रत्यक्षो का संकलन (क) यह इसके सदृश है। (ख) यह इससे विलक्षण है। (ग) यह इससे छोटा है। - इसमे दोनो प्रत्यक्ष हैं। (३) दो स्मृतियो का संकलन (क) वह उसके सदृश है। (ख) वह उससे विलक्षण है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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