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________________ ५२ ] स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु श्रोत्र मन व्यवहार प्रत्यक्ष के २८ भेद : अवग्रह ईहा व्यञ्जनावग्रह | अर्थावग्रह 33 " 39 X जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा 33 X अवग्रह आदि का काल मान 35 36 "" "} 33 11 व्यञ्जनावग्रह — असंख्य समय । अर्थावग्रह - एक समय । ईहा - अन्तर- मुहूर्त्त | अवाय — अन्तर मुहूर्त्त । धारणा -- सख्येय काल और 93 ,, L 39 "" 36 " अवाय "" 29 33 35 35 " धारणा " 39 33 "" 35 33 असख्येय काल । 9 के दो भेद हैं- (१) श्रुत- निश्रित (२) अश्रुत - निश्रत । श्रुतनिश्चित मति के २८ भेद हैं, जो व्यवहार प्रत्यक्ष कहलाते हैं २० | औत्पत्तिकी आदि बुद्धि चतुष्टय श्रुत निश्रित है २१ । नन्दी में श्रुत-निश्चित मति के २८ भेदो का विवरण है। अश्रुत निश्रित के चार भेदो का इन में समावेश होता है या नही इसकी कोई चर्चा नहीं । 'के २८ भेद वाली परम्परा सर्वमान्य है किन्तु २८ मेदों की स्वरूप रचना में दो परम्पराएँ मिलती हैं। एक परम्परा अवग्रह - अभेदवादियो की है। इसमे व्यञ्जनावग्रह की अर्थावग्रह से भिन्न गणना नही होती, इसलिए श्रुत निश्रित मति के २४ मेद व अश्रुत - निश्रित के चार—इस प्रकार मति के २८ मेद बनने हैं २) D दूसरी परम्परा जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण की है। इसके अनुसार अवग्रह आदि चतुष्टय श्रुत निश्रित और श्रुत- निश्रित मति के सामान्य धर्म हैं, इसलिए मेद-गणना में अश्रुत - निश्रितं मति श्रुत - निश्रित में समाहित हो जाती है | ·
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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