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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमासी [४९ निश्चय है। इसका फलित यह होता है कि नैश्चयिक अवग्रह का अपाय रूप व्यावहारिक अवग्रह का आदि रूप बनता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर अनेक जिए हो सकती हैं। जैसे अवस्था भेद से यह शब्द बालक का है या बुड्ढे का ? लिङ्ग-भेद से स्त्री का है या पुरुष का ? आदि आदि । व्यवहार प्रत्यक्ष का क्रमविभाग अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का न उत्क्रम होता है और न व्यतिक्रम । अर्थ ग्रहण के बाद ही विचार हो सकता है, विचार के बाद ही निश्चय और निश्चय के बाद ही धारणा। इसलिए ईहा अवग्रहपूर्वक होती है, अवाय ईहापूर्वक और धारणा अवायपूर्वक) व्यवहार प्रत्यक्ष के ये विभाग निर्हेतुक नहीं है। यद्यपि वे एक-वस्तुविषयक ज्ञान की धारा के अविरल रूप है, फिर भी उनकी अपनी विशेष स्थितियां हैं, जो उन्हें एक दूसरे से पृथक करती हैं। (१) 'यह कुछ हैंइतना-सा ज्ञान होते ही प्रमाता दूसरी बात मे ध्यान देने लगा, बस वह फिर आगे नहीं बढ़ता। इसी प्रकार यह अमुक होना चाहिए'-'यह अमुक ही है' यह भी एक-एक हो सकते हैं। यह एक स्थिति है जिसे 'असामस्त्येन उत्पत्ति' कहा जाता है। (२) दुसरी स्थिति है-क्रममावित्व'-धारा-निरोध। इनकी धारा अन्त तक चले, यह कोई नियम नहीं किन्तु जब चलती है तब क्रम का उल्लंघन नहीं होता। यह कुछ है' इसके विना 'यह अमुक होना चाहिएयह शान नहीं होता। 'यह अमुक होना चाहिए'-इसके बिना 'यह अमुक ही है' यह नहीं जाना जाता। 'यह अमुक ही है। इसके विना धारणा नहीं होती। (३) तीसरी स्थिति है-'क्रमिक प्रकाश-ये एक ही वस्तु के नये-नये पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। इससे एक बात और भी साफ होती है कि अपने अपने विषय में इन सबकी निर्णायकता है, इसलिए ये सब प्रमाण हैं। अवाय स्वतन्त्र निर्णय नहीं करता। ईहा के द्वारा ज्ञात अश की अपेक्षा से.ही. उस पर विशेष प्रकाश डालता है।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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