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________________ ३ जैन दर्शन में प्रमाणे मीमांसा जैसे मिथ्यात्व सम्यक् श्रद्धा का विपर्यय है, वैसे अज्ञान ज्ञान का विपर्यय नहीं है। ज्ञान और अज्ञान में स्वरूप-भेद नही किन्तु अधिकारी भेद है। सम्यग् दृष्टि का ज्ञान ज्ञान कहलाता है और मिथ्या दृष्टि का ज्ञान अज्ञान। ___ अज्ञान में नञ् समास कुत्सार्थक है। ज्ञान कुत्सित नही, किन्तु ज्ञान का पात्र जो मिथ्यात्वी है, उसके संसर्ग से वह कुत्सित कहलाता है। __ सम्यग् दृष्टि का समारोप शान कहलाता है और मिथ्या दृष्टि का समारोप या असमारोप अज्ञान । इसका यह अर्थ नहीं होता कि सम्यग् दृष्टि का समारोप भी प्रमाण होता है और मिथ्या दृष्टि का असमारोप भी अप्रमाण४४॥ समारोप दोनो का अप्रमाण होगा। असमारोप दोनो का-प्रमाण। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के निमित्त क्रमशः दृष्टि मोह का उदय और विलय है। समारोप का निमित्त है ज्ञानावरण या शान-मोह:५ समारोप का निमित्त दृष्टिमोह माना जाता है, वह उचित प्रतीत नहीं होता। वे लिखते हैं-जहाँ विषय, साधन आदि का दोष हो, वहाँ भी वह दोष आत्मा की- मोहावस्था ही के कारण अपना कार्य करता है। इसलिए जैन दृष्टि यही मानती है कि अन्य दोष आत्म-दोष के सहायक होकर ही मिथ्या प्रत्यय के जनक है पर मुख्यतया जनक आत्म-दोष मोह ही है।" ___ समारोप का. निमित्त शान-मोह हो सकता है, किन्तु दृष्टि-मोह नहीं। उसका सम्बन्ध सिर्फ तात्त्विक विप्रतिपत्ति से है। तीन अज्ञान–मति, श्रुत और विभंग, तीन ज्ञान-मति, श्रुत और अवधि य विपर्यय नही है। इन दोनो त्रिको की क्षायौपशमिकता (शानावरण-विलय-- जन्य योग्यता) में विरूपता नही है। अन्तर केवल इतना आता है कि मिथ्या दृष्टि का ज्ञान मिथ्यात्व-सहचरित होता है, इसलिए उसे अज्ञान सजा दी जाती है। सम्यग् दृष्टि का ज्ञान मिथ्याव-सहचरित नहीं होता, इसलिए उमकी संज्ञा शान रहती है। ज्ञान जो अज्ञान कहलाता है, वह मिथ्यात्न के साहचर्य का परिणाम है। किन्तु मिथ्यात्वी का ज्ञानमात्र विपरीत होता है अथवा उसका अज्ञान और मिथ्यात्व एक है, ऐसी वात नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र (१-३२,३३) और उसके भाष्य तथा विशेषावश्यक माण्य में
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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