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________________ प्रमाण का लक्षण यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है । ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य । ज्ञान यथार्थ और यथार्थ दोनो प्रकार का होता है । सम्यक निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और संशय विपर्यय आदि ज्ञान यथार्थ । प्रमाण सिर्फ यथार्थ ज्ञान होता है । वस्तु का संशय आदि से रहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह प्रमाण है 1 1 ज्ञान की करणता प्रमाण का मामान्य लक्षण है- 'प्रमायाः करणं प्रमाणम् ' प्रमा का करण ही प्रमाण है । तद्वति तत्प्रकारानुभवः प्रमा' - जो वस्तु जैसी है उसको वैसे ही जानना 'प्रमा' है । करण का अर्थ है साधकतम । एक अर्थ की सिद्धि में अनेक सहयोगी होते हैं किन्तु वे सव 'करण' नही कहलाते । फल की सिद्धि मे जिनका व्यापार व्यवहित ( प्रकृष्ट उपकारक ) होता है वह 'करण' कहलाता है । कलम बनाने मे हाथ और चाकू दोनो चलते हैं किन्तु करण चाकू ही होगा । कलम काटने का निकटतम सम्बन्ध चाकू से है, हाथ से उसके बाद । इसलिए हाथ साधक और चाकू साधकतम कहलाएगा। १ प्रमाण के सामान्य लक्षण में किसी को आपत्ति नही है । विवाद का विषय 'करण' बनता है ( बौद्ध सारूप्य और योग्यता को 'करण' मानते हैं, ' नैयायिक सन्निकर्ष और ज्ञान इन दोनों को, इस दशा में जैन सिर्फ ज्ञान को ही करण मानते हैं 21) सन्निकर्ष, योग्यता आदि अर्थ बोध की सहायक सामग्री है। उसका निकट सम्बन्धी ज्ञान ही है और वही ज्ञान और ज्ञेय के बीच सम्वन्ध स्थापित करता है । Qमाण का फल होता है अज्ञान निवृत्ति, इष्ट-वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग यह सब प्रमाण को ज्ञान स्वरूप माने विना हो नहीं सकता । इसलिए अर्थ के सम्यक् अनुभव में 'करण' बनने का श्रेय ज्ञान को ही मिल सकता है ।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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