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________________ २३०] जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा १५-पानी जब गर्म होने लगता है तो हमको पहले पानी के रूप में ही प्रतीत होता है। परन्तु जव ताप वृद्धि की मात्रा सीमा-विशेष तक पहुंच जाती है तो पानी का स्थान भाप ले लेती है। इसी प्रकार के क्रमिक परिवर्तन को...मात्रा-भेद से लिंग-भेद कहते हैं। दूसरी अवस्था पहली अवस्था की प्रतियोगी उससे विपरीत होती है परन्तु परिवर्तन क्रम वहीं नहीं रुक सकता, वह और आगे बढ़ता है और मात्रा-भेद से लिंग-भेद होकर तीसरी अवस्था का उदय होता है, जो दूसरी की प्रतियोगी होती है। इस प्रकार पहली की प्रतियोगी की प्रतियोगी होती है। इसको यों कहते है कि पूर्वावस्था, नत् प्रतिपेध, प्रतिषेध का प्रतिषेध-इस क्रम से अवस्थापरिणाम का प्रवाह निरन्तर जारी है। जो अवस्था प्रतिषिद्ध होती है, वह सर्वथा नष्ट नहीं होती, अपने प्रतिषेधक में अपने संस्कार छोड़ जाती है। इस प्रकार प्रत्येक परवती में प्रत्येक पूर्ववत्तीं विद्यमान है। धर्म परिवर्तन की इस प्रक्रिया को द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया कहते हैं।
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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