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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [299 ५३ --विसोहि मग्गएण पडुच्च चउदस जीवहाणा पन्नत्ता... | सम० १४ । ५४ -- प्रवल मिथ्यात्वोदये काचिदविपर्यस्तापि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसम्भवः । - कर्म ० ५५- भग० जोड़ पर । शेषं सम्यग् श्रद्धत्ते, सम्यग् ५६~यः एक तत्त्वं तत्त्वाशं वा संदिग्घे, मिथ्यादृष्टिः, सम्यक् मिथ्यात्वीति यावत् । - जैन० दी० ८४ | ५७ - मिथ्यात्वमोहनीयकर्मारणुवेदनोपशमक्षय क्षयोपशमसमुत्थे आत्मपरिणामे । - भग० वृ० ८|२| ५८-तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्वस्य कार्यम्, सम्यक्त्वं तु मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यः शुभ आत्म-परिणामविशेषः । - धर्म प्रक० २ अधिकरण । 1 ५ε- तत्त्वा० श्लो० पृ० २५६ | ६०-- विभंग नाणी कोय रे, दिशा मूढ़ जिम तेह स्यू । सगलां नैं नहिं कोय रे, एहवूंं इहां जणाय है ॥ : तीन -भग० जोड़ ३, ६, ६ २६. । १ - न्याया० ४ । २--भग० ४१३| ३ -स्था० ५|३| ४- प्र० प्र० ११३ ५नं० २-३ ६---प्रमा० मी० ११४ ७ - अन्तःकरण की पदार्थाकार अवस्था को वृत्ति कहते हैं । वेदान्त में ज्ञान दो प्रकार का है - साक्षि ज्ञान और वृत्ति- ज्ञान । अन्त: करण की वृत्तियो को प्रकाशित करने वाला ज्ञान 'साक्षि-ज्ञान' और साक्षि- चैतन्य से प्रकाशित वृत्ति 'वृत्ति-ज्ञान' कहा जाता है। ६- मित्तु न्या० २।२ । १० - ४० न० २ व जैन० तर्क पृ० ७०
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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