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________________ २०%j जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा २४-रस्सी में सांप का ज्ञान होता है, वह वास्तव में ज्ञान-द्वय का मिलित रूप है । रस्सी का प्रत्यक्ष और सांप की स्मृति । द्रष्टा इन्द्रिय आदि के दोष से प्रत्यक्ष और स्मृति विवेक-भेट को भूल जाता है, यही 'अख्याति या विवेकाख्याति' है। २५-रस्सी में जिस सर्प का ज्ञान होता है, वह सत् भी नहीं है, असत् भी नही है, सत्-असत् भी नहीं है, इसलिए 'अनिर्वचनीय-सदसत् विलक्षण है। वेदान्ती किसी भी ज्ञान को निर्विषय नहीं मानते, इसलिए इनकी धारणा है कि भ्रम-शान में एक ऐसा पदार्थ उत्पन्न होता है, जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। २६-ज्ञान-रूप आन्तरिक पदार्य की बाह्य रूप में प्रतीति होती है, यानी मानसिक विज्ञान ही बाहर सर्पाकार में परिणत हो जाता है, यह 'आत्मख्याति है। २७-द्रष्टा इन्द्रिय आदि के दोष वश रस्सी में पूर्वानुभूत साँप के गुणो का अारोपण करता है, इसलिए उसे रस्सी सर्पाकार दीखने लगती है। इस प्रकार रस्सी का साँप के रूप में जो ग्रहण होता है, वह 'विपरीत ख्याति' है। २८-मित्तु न्या० २१४ । २६-मितु० न्या० श१५ ॥ ३०-अनध्यवसायस्तावत् सामान्यमानयाहित्वेन अवग्रहे अन्तर्भवति । -वि० मा. वृ० गाथा० ३१७ ३१-कर्मवशवर्तित्वेन आत्मनस्तज्ज्ञानस्य च विचित्रत्वात् । -न्या० पत्र १७७॥ ३२-भग० जोड़ श६६८...५१ से ५४ । ३३-प्रज्ञा० २३ ३४-प्रज्ञा० २२ ३५-प्र. न. राण
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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