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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा १५७ कारण एक ही सत्य के दो पहलू न होकर दोनो स्वतन्त्र बन जाते हैं। इसलिए यह युक्ति संगत नही है। (२) सत्-कार्यवाद भी एकांगी है। कार्य और कारण में अभेद है . सही किन्तु वे सर्वथा एक नहीं है। पूर्व और उत्तर स्थिति में पूर्ण सामजस्य नहीं होता। (३) असत् कारण से कार्य उत्पन्न हो तो कार्य-कारण की व्यवस्था नहीं वनती। कार्य किसी शून्य से उत्पन्न नहीं होता । सर्वथा अभूतपूर्व व सर्वथा नया भी उत्पन्न नहीं होता। कारण सर्वथा मिट जाए, उस दशा में कार्य का कोई रूप वनता ही नहीं। (४) विवर्त परिणाम से भिन्न कल्पना उपस्थित करता है। वर्तमान अवस्था त्यागकर रूपान्तरित होना परिणाम है। दुध-दही के रूप मे परिणत होता है, यह परिणाम है। विवर्त अपना रूप त्यागे बिना मिथ्या प्रतीति का कारण बनता है। रस्सी अपना रूप त्याग किये बिना ही मिथ्या प्रतीति का कारण वनती है । तत्त्व-चिन्तन मे 'विवर्त' गम्भीर मूल्य उपस्थित नही करता। रस्सी में सॉप का प्रतिभास होता है, उसका कारण रस्सी नही, द्रष्टा की दोषपूर्ण सामग्री है। एक काल में एक व्यक्ति को दोषपूर्ण सामग्री के कारण मिथ्या प्रतीति हो सकती है किन्तु सर्वदा सब व्यक्तियो को मिथ्या प्रतीति ही नही होती। ___ न्याय-वैशेषिक कार्य-कारण का एकान्त भेद स्वीकार करते हैं । सांख्य द्वैतपरक अभेद'", वेदान्त अतिपरक अभेद", बौद्ध कार्य-कारण का भिन्न काल स्वीकार करते है । __ जैन-दृष्टि के अनुसार कार्य-कारण रूप मे सत् और कार्य रूप मे असत् होता है। इसे सत्-असत् कार्यवाद या परिणामि-नित्यत्ववाद कहा जाता है। निश्चय-दृष्टि के अनुसार कार्य और कारण एक है-अभिन्न है। काल और अवस्था के मेद से पूर्व और उत्तर रूप में परिवर्तित एक ही वस्तु को निश्चय: दृष्टि भिन्न नहीं मानती। व्यवहार दृष्टि में कार्य और कारण भिन्न हैं-दो हैं। द्रव्य-दृष्टि से जैन सत्-कार्यवादी है और पर्याय दृष्टि से असत् कार्यवादी ।. . द्रव्य-दृष्टि की अपेक्षा "भाव का नाश और अभाव का उत्पाद नहीं होता."
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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