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________________ कार्यकारणवाद असत् का प्रादुर्भाव यह भी अर्थ-सिद्धि का एक रूप है। न्याय-शास्त्र असत् के प्रादुर्भाव की प्रक्रिया नहीं बताता किन्तु असत् से सत् वनता है या नही-इसकी मीमांसा करता है। इसी का नाम कार्यकारणवाद है। ___ वस्तु का जैसे स्थूल रूप होता है, वैसे ही सूक्ष्म रूप भी होता है । स्थूल रूप को समझने के लिए हम स्थूल सत्य या व्यवहार दृष्टि को काम में लेते हैं। मिश्री की डली को हम सफेद कहते हैं। यह चीनी से बनती है, यह भी कहते हैं। अब निश्चय की बात देखिए। निश्चय दृष्टि के अनुसार उसमें सब रंग हैं। विश्लेषण करते-करते हम यहाँ आ जाते हैं कि वह परमाणुओ से बनी है। ये दोनो दृष्टियां मिल सत्य को पूर्ण बनाती हैं। जैन की भाषा में ये 'निश्चय और व्यवहार नय' कहलाती हैं । वौद्ध दर्शन में इन्हे-लोकसंवृति सत्य और परमार्थ-सत्य कहा जाता है । शंकराचार्य में ब्रह्म को परमार्थ-सत्य और प्रपंच को व्यवहार सत्य माना है । प्रो० आइन्स्टीन के अनुसार सत्य के दो रूप किए बिना हम उसे छू ही नहीं सकते हैं। निश्चय-दृष्टि अमेद-प्रधान होती है, व्यवहार-दृष्टि मेद-प्रधान । निश्चय दृष्टि के अनुसार जीव शिव है और शिव जीव है । जीव और शिव में कोई भेद नहीं। __व्यवहार दृष्टि कर्म-बद्ध आत्मा को जीव कहती है और कर्म-मुक्त आत्मा को शिव। कारण-कार्य प्रत्येक पदार्थ मे पल-पल परिणमन होता है। परिणमन से पौर्वापर्य आता है। पहले वाला कारण और पीछे वाला कार्य कहलाता है। यह कारण-कार्य-भाव एक ही पदार्थ की द्विरूपता है । परिणमन के बाहरी निमित्त भी कारण बनते हैं। किन्तु उनका कार्य के साथ पहले-पीछे कोई सम्बन्ध नहीं होता, सिर्फ कार्य-निष्पत्ति काल में ही उनकी अपेक्षा रहती है। परिणमन के दो पहलू हैं :-उत्पाद और नाश । कार्य का उत्पाद होता
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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